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गणित

बहुत शातिर है , चाल बड़ी तेज़ है उसकी.... कितनी भी कोशिश कर लूँ.... उसके कदमों से कदम नहीं मिला पता हूँ... वह आगे निकाल जाता है , छोड़ के सब कुछ पीछे... लिखावट महीन है उसकी... सबके समझ में नहीं आती.... गणित बहुत अच्छा है , कुछ भी नहीं भूलता , सब याद रखता है , हर साल मेरे कर्मों का हिसाब मेरे चेहरे पर दर्ज़ कर , गुजर जाता है ‘ वक़्त ’ ! 

मर्द

थोड़ी लज्जित हैं यह आँखें , कुछ बोझ सा होता है पलकों पर! झुकी-2 सी , दबी -2 सी रहती हैं , बोझिल पलकें मेरी! नज़रें नहीं मिला पता हूँ किसी महिला की नज़रों से..... दिल में चोर सा बैठा है एक ‘ मर्द ’ जो शर्मिंदा है.... लज्जित है.... अपने मर्द होने पर!!!!!!!

लहरें...

“अगर लहरों ने तुम्हारा क़िला गिरा दिया तो ? “अरे , नहीं गिराएंगी... उनसे permission जो ली है मैंने..... जब तक मैं यहाँ हूँ तब तक यह क़िला मेरा है....” “और उसके बाद... ??? “ वैसे सब तो इनका ही है..... मेरे जाने के बाद इनकी मर्जी.... चाहे इस क़िले में आ बसें ... या अपने साथ बहा ले जाएँ .... मुझे क्या..." मैं बस मुसकुराता हूँ .......  “ ओ हैलो... तुम हंस क्यों रहे हो.... मैं मज़ाक नहीं कर रही.... मैं तो इनसे बातें भी करती हूँ..... यह मेरी बातें समझती हैं और मैं इनकी ... simple है..." “ हूँ... अच्छा तो जरा हमें भी बताओ क्या क्या बातें की तुमने इनसे....." “रहने दो तुम्हारे बस का रोग नहीं इन्हे समझना..... वैसे एक बात बताऊँ..... बड़ी भोली हैं यह... कहती है... पास आओ थोड़ा प्यार दो.... तुम्हारे पैरों में आ पड़ूँगी.... पाँव चूम लूँगी तुम्हारे.... पर यह प्यार सबके लिए नहीं है... उनके लिए तो बिलकुल ही नहीं , जो अपने आप में खोये हुये हैं.... पड़े हुये हैं एक दूसरे की बाहों में..... selfish people…… सागर किनारे आ के भी लहरों के लिए वक़्त नहीं इनके पास....” बड़

बूढ़ा बस स्टैंड

लड़ाई हुई थी अपनी आँखों की , पहली मुलाक़ात पर , वह बूढ़ा सा बस स्टैंड , मुस्कुराया था देख हमें , जाने कितनी बार मिले थे हम वहाँ , जाने कितने मिले होंगे वहाँ हम जैसे , वह शब्दों की पहली जिरह , या अपने लबों की पहली लड़ाई , सब देखा था उसने , सब सुना था , चुपचाप , खामोशी से , बोला कुछ नहीं। कहा नहीं किसी से , कभी नहीं। कितनी बार तुम्हारे इंतज़ार में , बैठा घंटों , जब तुमने आते-2 देर कर दी। जब कभी नाराज़ हो मुझे छोड़ चली गयी तुम , कई पहर , उंगली थामे उसकी , गोद में बैठा रहा उसके। उसके कंधे पर सर रख के। याद है वहीं कहीं गुमा दिया था तुमने दिल मेरा , हंसा था मेरी बेबसी पर वह , अब वह बूढ़ा स्टैंड वहाँ नहीं रहता , कोई fly over गुजरता है वहाँ से देखा था, जब आया था तुम्हारे शहर पिछली बार। कहीं चला गया होगा वह जगह छोड़ , उस बदलाव के उस दौर में , जब सब बदले थे , मैं , तुम और हमारी दुनियाँ ! अब जो सलामत है वह बस यादें हैं , और कुछ मुट्ठी गुजरा हुआ कल , याद आता है वह दिन, जब तुम्हारा दिल रखने को तुम्हारे नए जूतों की तारीफ की थ

काला दिल

सुबह सबेरे चिपका होता है आसमां से यूं , ज्यो सोते वक़्त , माथे की वह बड़ी सी लाल बिंदी , आईने से चिपका देती थी , दादी माँ , बढ़ता , घटता , बढ़ता है , मिटता है और आ जाता है , रंग बदलता रहता है , सुबह , दोपहर , शाम , क्यो ? जलता-2 रहता है , पर जलता है क्यो तू ? आसमां में मीलों दूर बैठा , जलन किस बात की है तुझे ? गुबार किस बात का है तेरे दिल में ? क्या धरती ने दिल तोड़ा था तेरा ? या हमसे जलता है तू ? धनक तेरी देख , सोचता हूँ मैं , हर वक़्त जलते रहने वाले सूरज , दिल तेरा कितना काला होगा !!!!!!!!!!!!!!!!!!!

दो रुपये की खुशी

बड़-बड़ ...... बड़-बड़ाता है , आसमां में देख मुसकुराता है , इशारे करते रहता है , अक्सर चलते देखा है , चलता ही रहता है , और चलते-2 खुद से बतियाता है..... ऐसा ही है वह..... कोशिश नहीं दिखती कुछ बन जाने की , चाह नहीं कुछ पाने की , फिक्र नहीं है खाने की सुध नहीं नहाने की ऐसा ही है वह.... बढ़ी हुयी दाढ़ी आधी सफ़ेद आधी काली , बदहाल कमीज़ , बिना बटन के , चिथड़ों सा पैंट , एक पैर मे काला , एक में सफ़ेद चप्पल बिलकुल दाढ़ी की तरह दो रंगी... ऐसा ही है वह..... बारिश से बचने को , जब छाता ले निकला था मैं , उस रोज तो पहली बार देखा था उसे... उसके अपने छाते के साथ.... छाता ?? छाते जैसा ही था कुछ , बस कपड़े की जगह रस्सियाँ लिपटी थी 2-3 तारों पर.... ऐसा ही है वह..... पागल है पर समझदार है , जनता है , उसे कब कहाँ होना चाहिए , सुबह नुक्कड़ की चाय की दुकान पर , कोई ना कोई चाय बिस्कुट दे ही देता है , शाम को पिछली गली मे समोसे की दुकान पर , वह जानता है , उसे खाने को जरूर मिलेगा और मिलता भी है..... तो दोपहर में सड़क किनारे के उ

दायरे

मेरा एक घर है इस महानगर में , 3 कमरे , रसोई घर और एक बड़ा सा हाल , हर कमरे से जुड़ी एक बालकनी , जहां से सारा शहर दिखता है , चाय की चुस्की लेते हुये मैं जब समंदर को देखता हूँ तो यूं लगता है , यह लहरें मेरी ऊंचाई तक आने को मचल रही हैं। बहुत सारे लोगों को जनता हूँ यहाँ और वो सब यह जानते हैं , मेरा घर उनके घर से बड़ा है बहुत बड़ा...... साल के किसी कोने में छुपी हुई छुट्टियाँ चुरा , माँ को ले कर , माँ के घर जाता हूँ शायद अपने पुराने घर। घर बड़ा ही छोटा सा है , बुढ़ापे की लकीरें उसके चेहरे पर साफ-2 नज़र आती हैं , रहता तो वहाँ कोई नहीं है अब , मगर माँ कहती है यादें बसती हैं कुछ वहाँ , जिन्हे सजोने वह हर साल आती है , मेरा अपना एक कमरा भी है जिसमे कोई खिड़की नहीं है कोई , बस एक रोशनदान है। जहां से बाहर कुछ भी नहीं दिखता है , मगर सुबह सबेरे सूरज की किरण मेरे बिस्तर तक आती है। माँ बड़े चाव से बताती है बचपन में मैं इन किरणों को मुट्ठी मे बांध लेता था.... डर के , कहीं मुझे छोड़ ना जाएँ यह..... एक आँगन भी है इस घर में , पास के पीपल के

‘ब्लैक होल’

यथार्थ .... छलावा .... निराकार ..... कामातुर नायिका सा प्रलोभन , वो गुरुत्वाकर्षण.... नक्षत्र , उल्काओं सा मेरा गलन.... तुम में समाहित होने को उतारू मैं.... तुम्हारा अवशोषण .... पा तुम्हें , तुम में खोना नियति , लुभा कर मिटाना तुम्हारी नियत.. तुम्हे अपना कर , खोना है अस्तित्व अपना   जो बचता है वो तुम हो , सिर्फ तुम.... तुम ' मैं ' नहीं हो पाते हो.... मैं तुम में बस गुम हो के   रह  जाता हूँ... भो स्वप्न! तुम आँखों में पलते निमित मात्र एक सपना हो..... या फिर कोई ‘ ब्लैक होल ’….. प्रकाश की रेखाएँ भी तुम में खो कर रह जाती हैं.....

खामोशी

कई बार ये खामोशी कितनी अच्छी लगती है .....मैं चुप हो जाता और सोचता कि तुम कुछ बोलोगी.... और तुम भी ऐसा ही कुछ सोचने लगती थीं शायद.....  और ये खामोशी पैर पसार लेती थी हमारे बीच.....   अचानक से दोनों ही साथ बोल पड़ते.... ये खामोशी हमारी हंसी मे घुल कर रह जाती.... क्यों ? खाली बैठे बैठे दिमाग मे यही सवाल कौंधा.... क्यों ? फिर हंसी आई .... “उफ कितने सवाल पुछते हो तुम... ? एक और सवाल , फिर देखो तुम्हारा फोन और तुम्हारा सर...... ? ” याद आई तुम्हारी ये बात ..... आज कल खुद से सवाल पुछने से डरता हूँ ..... मन मे ये बात उठती है क्यों ?  ... फिर ज़ोर से हँसता हूँ.... मैं तो मैं ही ठहरा ना.... कमबख्त ये दिल भी कितने सवाल पूछता है मेरा .... ... अब मैं अपने सवालों को छुपा लेता हूँ.... कमरे मे बिखरी खामोशी को खुद पे लपेट लेता हूँ..... ॥       जाने कब से खामोश पड़ा हूँ.... इस बार खामोशी थोड़ी लंबी खिच गयी है...... फोन के दूसरी तरफ बैठा मैं , अब भी इस खामोशी के टूटने का इंतज़ार कर रहा हूँ.... हर वक़्त यही सोचता हूँ ... कभी तो.... कभी तो तुम्हारी आवाज़ इस खामोशी को तोड़ेगी... या कभी थक क

बंटवारा

१६-चिट्ठियां, २२- ग्रीटिंग कार्ड्स, ४८-सूखे गुलाब, ७६-सर्दियों के दिन, १५-रतजगे, १७००-घंटो की फोन पर की गयी बातें, बंटवारे के बाद मेरे हिस्से इतना सब आया, तुमने भी इतना ही कुछ पाया, जितना तुमने, उतना मैंने, गवाया... साथ देखे फिल्मों के पुराने टिकट नज़रे बचा, मैंने तकिये के नीचे छुपाये, मानाने को लिखी थी जो कवितायेँ कभी चोर की तरह तुमने अपनी मुट्ठी में दबाये, तुम्हारी बंद पड़ी घडी, जिसका कांच बस से उतारते वक़्त चटक गया था-मेरे हाँथ, मेरा ख़राब म्प३ प्लयेर, जो अपनी छिना झपटी में टुटा था, तुम्हारे साथ.. दिन तुम्हारे हुए, रातें मेरी ... अपने - अपने रास्ते भी बांटें हमने ... अब जब मैं अपनी रातों को जगाता हूँ, खिड़की से झांकती-२ रात गुजर जाती है.. और मैं रात को गुजरते हुए ... खिड़की से देखता रहता हूँ... सोचता रहता हूँ अगर मैं बटवारें में मिली साड़ी चीजें तुम्हे लौटा दूं, तो.... मेरी नींदें जो तुम्हारे हिस्से आई थीं  क्या तुम मुझे लौटा दोगी?

ए साँझ.............

भानु गमन की ओर अग्रसर, अस्ताचल पर लालिमा प्रखर, कोलाहल को उतारु खगेन्द्र छू कर लौटे शिखर- काट दिवा निर्वासन अनोखा तुम्हारा प्रपंच, अनोखा प्रलोभन ए साँझ.............  बिखरी साँझ किरण, संध्या आगमन, तिमिर आह्वान,  दिवाकर अवसान, सायों का प्रस्थान, खोलती मेरे यादों की थाती अकिंचन... ए साँझ.... व्याकुल आने को, शशि स्वार्थी रोम रोम पुलकित कर, जाते रश्मिरथी  शून्य का विहंगम- दृश्य अलौकिक मेघों में भरे रंग नैसर्गिक  अनूठी तेरी कुंची, अनूठी ये चित्रकारी.. ए साँझ... पस्त मन के विचित्र विकृत विचार हर्षाते सपने आँखों में निराकार सागर तट पर जब भी सूरज बुझाता हूँ... कल लौट के आने का  दिनकर का मौन प्रचार शत-२ सम्मान , शत-२ नमन ए साँझ....

किस्तों की वो मौत

उफ़ ... कितनी दफा फोन किया...... कुछ फूल भेजे .... कोई कार्ड भेजा.... नाराज़ जो बैठी थीं .... और हर बार तरह, उस बार भी  तुम्हे मानाने की कोशिश में नाकाम हुआ मैं... तुम्हे मानना मेरे बस बात थी ही कहाँ... जितना मनाओ, तुम उतनी नाराज़.... वैसे नाराज़ तो तुम्हे होना भी चाहिए था... सर्दी जो हो गई थी तुमको, दिसम्बर की उस बारिश में भींग.. माना ही कहाँ था मैं.... खिंच लाया था भीगने को .... घर पहुचने से पहले .. हमारे छींकों की आवाज़ घर पहुंची थी.... दाँत किट-किटाते जब तुम्हे घर छोड़ बहार निकला तो लगा अलविदा कहते ही मेरे अन्दर का कोई हिस्सा मर गया हो... बोला तो तुमने फोन पे लिख भेजा... तुम्हारी मौत तो किस्तों में ही लिखी है मिस्टर... हर रोज ऐसे ही मारूंगी  तुम्हे..... कतरा-२, किस्तों में... हंसा था जोर से किस्तों में मिलने वाली  एक हसीन  मौत को सोच , और फिर कितनी बार कितनी किस्तों में मरा.. मुझे याद ही कहाँ... अब भी याद कर के हँसता हूँ... सालों बाद की अपनी किस्तों की ज़िन्दगी देख.... किस्तों-२ में मरना.... किस्तों में जीने

पहली कविता

कौन था वह जिसने पहली कविता लिखी .... कोई योगी....या कोई वियोगी..... किसने पहला गीत लिखा ? क्या ख्याल आया था उस कवि मन में उस रोज .... जब वह कुछ शब्दों से एक चेहरा उकेर रहा था.... लिखने का ख्याल आया कैसे उस मन में ? कहीं ‘ तुम्हारे ’ बारे में तो नहीं सोच रहा था वह ? या कहीं , किसी रोज , एक छत पर आधी रात गए... तारे गिनते वक़्त ..... तुमने उसका हाथ थामा था... घंटों गुफ्तगू की.... कुछ कहा... कुछ सुना.... आइसक्रीम खाते-2 तुमने अपने चेहरे पर गिर आई स्याह सी ज़ुल्फें हटायी ...... मुस्कुराते हुये उस ‘ पागल ’ ने देखा था तुम्हें.... फिर सुबह होते ही किसी पत्ते ...... किसी पत्थर पर ‘ तुम्हें ’ लिखा होगा..... सोचता हूँ अक्सर मैं.... शायद ऐसे ही कहीं , किसी रोज , दुनिया के किसी कोने में कोई कविता जन्मी होगी ... कोई गीत उपजा होगा... राहुल रंजन