यथार्थ .... छलावा .... निराकार ..... कामातुर नायिका सा प्रलोभन , वो गुरुत्वाकर्षण.... नक्षत्र , उल्काओं सा मेरा गलन.... तुम में समाहित होने को उतारू मैं.... तुम्हारा अवशोषण .... पा तुम्हें , तुम में खोना नियति , लुभा कर मिटाना तुम्हारी नियत.. तुम्हे अपना कर , खोना है अस्तित्व अपना जो बचता है वो तुम हो , सिर्फ तुम.... तुम ' मैं ' नहीं हो पाते हो.... मैं तुम में बस गुम हो के रह जाता हूँ... भो स्वप्न! तुम आँखों में पलते निमित मात्र एक सपना हो..... या फिर कोई ‘ ब्लैक होल ’….. प्रकाश की रेखाएँ भी तुम में खो कर रह जाती हैं.....
कभी -कभी बाज़ार में यूँ भी हो जाता है, क़ीमत ठीक थी, जेब में इतने दाम न थे... ऐसे ही एक बार मैं तुमको हार आया था.........! .... गुलज़ार