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रावण दहन

भू-२ कर स्वाहा होने लगा रावण.. नेता जी के तीर ने रावण की आहुति दे दी थी... 'वह' परेशां सा रावण दहन का यह दृश देखता रहा.. अब उसे भी किसी नेता को तलाशना होगा, नेता तीर चला उसके अन्दर छुपे रावण का दहन कर देगा.. खुश हुआ एक पल को..  नेता की तलाश शुरू हो गयी... पर हर चेहरे के पीछे उसे कोई ना कोई रावण जरुर दिखा.. क्या करे... भला  कोई रावण खुद का दहन भी करता है क्या?  क्यों कोई खुद को जलाएगा? फिर वो क्यों उतारू है वह अपने अन्दर के रावण को मारने को? राम की तलाश अधूरी रही... सोचते -२ उसने सिगरेट जलाई.. मुस्कुराया ...  सोच खुश था..... कि अब अन्दर का रावण दहन होगा... ना भी हुआ तो  कभी ना कभी तो अन्दर के  रावण का दम घुट ही जायेगा !

गिरवी

कुछ था जो अब नहीं है.. बेतहाशा दौड़ता रहता हूँ उसकी परछाई पकडे.. वक़्त बदला तो नहीं  पर उसकी चाल नई है ... एक-२ कर जाने  कितने पैबंद लगाये.. चादरे बदली, कई राज़ छुपाये.. अब भी बोझिल है ज़मीर, गुनाह जो कई हैं! कुछ पता हूँ तो टीस सी उठती है अब.. दिन सोने नहीं देता. रात से नींद रूठी है.. ना मैं गलत हूँ और ना ही तू .. फिर जाने कौन सही है... वो तेरे थे उन्हें आना ही था.. लौट आये हैं तेरी कलाइयों में..  तू मुस्कुराती है और मैं तुझसे नज़ारे चुराता हूँ.. दूर भटकता हूँ तुझसे अपने  दिवा स्वप्नों की परछाइयों में... हंसी रूठी -२ सी है उस रोज से जब बाज़ार में खुद को बिकाऊ पाया था. मेरे कुछ सपनों की कीमत पर माँ जब तुने, अपने कंगन सुनार के पास गिरवी रखवाया था...