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साल का आखिर सच...

स्याह रात ने अपने पर फैला दिए थे .... साये गहरे होते जा रहे थे.... वो तड़प रहा था... सितारों ने बेड़ियों से जकड़ लिया था उसे....... आवारा उल्कायों ने पहले उसे दोस्ती के जाल  में फसाया और फिर जाते जाते उसे दाग दे कर चली गयीं ... अनगिनत दाग...उसके चहरे पर वो धब्बे साफ साफ नज़र आ रहे थे.... आवारा उल्काओं से उसकी दोस्ती धरती को पसंद नहीं आई थी शायद ... अब धरती की परछाई 'चाँद' को निगल रही थी... उसका अस्तित्व ख़त्म हो रहा था.... चांदनी का भी दम घुटा सा जा रहा होगा ... तभी तो उसकी रंगत पिली पड़ती जा रही थी.. चाँद की हमदर्द चांदनी ने भी शायद उससे दूर जाने का फैसला कर लिया था.... निसहाय सा चाँद उसे बस जाते हुए देख रहा था.... वो अपना हाँथ बढ़ा चांदनी की कलाई थाम लेना चाहता था..... पर उसके हाँथ तो उठे ही नहीं.... गुनाहों के बोझ तले दबे जो थे.... और बेरहम चांदनी? उसने तो पलट कर देखना भी गवारा न समझा...... चाँद की आँखे भर आई... उसकी आँखों से खून टपक रहा था...टप- टप... टप.. कर खून का हर एक कतरा मेरे लिहाफ को भिगोता रहा.... छत पर खड़ा मैं चाँद की इस दुर्गति का मूक दर्शक भर था..... चाँद की लौ

चेहरे

वो आइना अपना सा लगता था मुझे, आखिर उसी में तो एक चेहरा दिखता था जो जनता था मुझे, पहचानता था मुझे... एक रोज हवा का एक झोका  उसकी बुनियाद हिला गया, उसके अस्तित्व, उसके  अरमानो को मिटा गया. कराहता मिला था फर्श पर मुझे, उठाया, देखा, और पाया, कितना झूठा था मेरा आइना ता-उम्र मुझे एक झूठा चेहरा दिखाता रहा, मेरी वास्तविकता मुझसे ही छुपाता रहा, उसके को सच मन मैं बरसों इतराता रहा.. पर जाते-२ वो मुझे मेरी हकीक़त बता गया, मुझे मेरे अनगिनत चेहरा दिखा गया, चेहरे पर पहने थे कई चेहरे मैंने वो सब  से रु-ब-रु करा गया... वो टूट गया, अपना सा लगाने वाला  वो चेहरा मुझसे रूठ गया.. फिर आइने का सामना कम ही कर पता था, दिखाता था जिधर उधर जाने से कतराता था, खुद से नज़ारे मिलाने में ये शर्म कैसी? और क्यों? क्या मैंने गुनाह किया है? क्या मैंने सिर्फ झूठ को जिया है? नहीं,, तो फिर दर्पण से ये डर कैसा? सोच यह, कर हौसला बरसों बाद. आँखों के सामने से गुजरे  अपने ही चेहरे को कर के याद.. आज आइने से टकरा गया अपने नए नवेले अनोखे चेहरे  को देख घबरा गया.. खुछ खो सा गया था चेहरे से मेरे अपने ही चेहरे में एक कमी सी दिखी आँखों

असुर

सौहार्द, अहलाद, आनंद परित्यक्त  देवत्व की राह चुनी  त्याग पुरुषत्व  भावनाओं के खँडहर पर  खड़ा, लाचार बेबस  मानव हो देवत्व की राह क्यों? जिस पथ पर तू चल नहीं सकता  उस पथ की चाह क्यों? पथिक तू क्यों है निर्बल, एकाकी, अधीर? काँटों का ताज तुने ही चुना.. क्यों घबराता है तम से अब  भ्रम का मकडजाल तुने ही बुना.. लक्ष्य से विचलित, विमुख मानव  तू जीवन के ज्वलंत ज्वार में खो गया है, ज़िन्दगी की ताल से खो कर सुर अब तू न मानव रहा,न देव है तू एक असुर हो गया है..... 

चाय गिरा एक पन्ना...

ऑफिस में बैठे बैठे कुछ वक़्त मिल गया... या यूँ कहूँ तो मैंने कुछ वक़्त चुरा लिया...कुछ लिखने की सोची.... घन्टों लम्बी मत्थापच्ची .. भीर कुछ नहीं समझ आया... लगा लेखनी पर धूल जम आई है.. देखा तो पाया धूल तो मेरी टेबल पर भी जम गई थी..कम ही पलट कर देखता हूँ ना पलट कर टेबल पर बिखरे पन्नों को... लोग भी कहते हैं रहने दो.. इसे देख   writer  वाली   feel  आती है... तो ऐसे ही छोड़ देता हूँ.. ज़िन्दगी की तरह पन्ने ही  बिखरे हों   तो कागज़ के पन्नो के बिखरने से फर्क ही क्या पड़ता है.... पर आज का दिन कुछ और ही था... आज धूल को जाना ही था.... एक-२ कर ... परत-दर-परत धूल हटता गया... टेबल पर बिखरे स्क्रिप्ट्स के बिच एक पन्ना हाथ लग गया...देख चेहरे पर मुस्कान बिखर गई.... सफाई छोड़... पन्ने की खूबसूरती में खो गया...   चाय गिरी थी ना तुमने उस दिन... टेबल पर... शायद ये भी उस सुनामी की चपेट में आ गया होगा... याद हैं ना उस रोज वो कांच का कप कैसे तुम्हारे हाथों में आते ही कैसे अस्तित्व हीन हो बैठा .. मेरी ही तरह... और.......   वो पन्ना बड़ा ही खुबसूरत लगा .. Biased  हूँ ना

जलते हुए सिग्रेट की आवाज़

कभी जलते हुए सिग्रेट की आवाज़ सुनी है तुमने? एक अजीब सी आवाज़, सन्नाटे को भेदती.. मानो उसे मिले हर ज़ख्म का हिसाब मांगती हो... कितनी मिलती है ना उसकी आवाज़ मेरे दिल की आवाज़ से....? सुन अपनापन सा लगता है. वही चीर-परिचित सदायें, वहीँ धुआ-२ सा माहौल.. कभी सुनना इस व्यथा को तुम, मेरे दिल की सदाओं जैसी ही लगेंगीं, आखिर दोनों एक ही तो हैं.. जनता हूँ, सुन कर यहीं सोचोगे कि तुमने कौनसे ज़ख्म दिए हैं मुझे? मैं भी सिग्रेट जला यही सोचता हूँ.. इसके सवाल बेमानी से लगते है... मगर जलन उसका क्या? मेरी और सिग्रेट की फितरत लगभग एक सी हैं.. बस फर्क इतना भर ही है सिग्रेट जलाते जलते बुझ जाती है.. और मैं बुझते-२ जल जाता हूँ... एक जल कर भस्म  हो जाता है और एक...... जितना बुझाओ उतनी ही शिद्दत से जलाता है.... एक बार जरुर जलाना सिग्रेट.. शायद बुझने से पहले ये उन सवालों को पूछ बैठे .. जो मैं जीते-जी, कभी ना पूछ पाऊं... एक कश जरुर लेना... शायद.. सिग्रेट की आत्मा को शान्ति मिले.. बुझने से पहले वो उन होठों  को छू कर गुजरे.. जिनसे अब मेरा नाम ... बमुश्किल ही निकलता हो....

इधर-उधर से.....

१)  ख्वाबों के बोझ से कुचले  आसमां में उडान का सबब धरती पर गिरा वो लहूलुहान परिंदा बता गया... २) उसे कोई त्याग की प्रतिमूर्ति कहता था, कोई महान, तो कोई देवी... सुना है वो कल रात  गुज़र गई, पर जीते जी किसी ने उसे इन्सान नहीं समझा.... ३) याद है  उस रात तुमने मेरे तकिये के नीचे कुछ अध् खिले सपने छिपाए थे, सुबह जब आँख खुली तो उनकी खुशबू से मेरा कमरा महका हुआ था... ४) जब भी तुम घर आये, तुम्हारे चहरे को डायरी में दर्ज किया, आज डायरी के पन्ने  पलटे तो देखा तुम्हारा सुर्ख चेहरा ज़र्द पड़ा था.... ५) तुम तो कुछ भी नहीं भूलते थे ना.. कल सामने से यूँ निकले जैसे कभी देखा न हो, शायद यादों के दरख़्त पर धूल जम आई होगी.... ६) उस चहरे से मासूमियत झलकती थी, कल देखा तो उस पर अनगिनत खरोंचे थीं, हवाएं जहाँ से गुजरती है अपने निशां छोड़ जाती हैं... ७) उस अछूत के घर रोशनी कम ही आती थी  पर कुछ दिनों से उसका घर गुलज़ार है, सुना है, सरकार  ने सूरज की रोशनी पर भी 'कोटा' लगा दिया है...... 

हाशिये

खुद के लघुता का एहसास कराते, ढलते सूरज के साथ बढ़ाते ये साये, शाम के साथ जवां होती तन्हाई, भूली बिसरी यादें, धुआं-२ ,  उलझे- उलझे रास्ते अनेक . जज्बात ... मटियामेट.... मुड के जाने के रास्ते बंद, मलाल हजारों, खुशियाँ चंद, कुंद, एहसासों का बगीचा, उस परी का सूना दरीचा, खुद को दिए अनंत आघात, वक़्त का कुठाराघात.. रिश्ते-नाते,अनकही सी बातें, आधी-अधूरी, अधजगी सी रातें,  डायरी मे बंद कुछ रुबाइयाँ, मुझ पर हंसती वो परछाइयाँ , वो अनगिनत से आक्षेप, कुछ हसीं से सपने.. पटाक्षेप.... 

रतजगे

अंगने में एक सपना खिला है, आज मैं खुश हूँ, दूर कहीं वो जूही की  कलि मुस्काई होगी.. छिटकी होगी चांदनी छत पे चाँद को देखा होगा 'उसने' शर्माया होगा चाँद , उसे छुपाने कोई बदरिया आई होगी. हवा ने कुछ कहा होगा, हौले से उस रुख को छुआ होगा  बिखर गयी होगी लाली उसके चहरे पर, शर्मा कर उसने अपनी पलकें झुकाई होगी.. खोला होगा उसने जुल्फों को अपनी चाँदी सी इस रात में  अंधियारी घिर आई होगी.. अब महक उठा है  मेरा कमर मोगरे जैसा चहका सा है मंजर  शायद  उसकी चुनरिया लहराई होगी... सुनता हूँ सायों की बातें मैं  अल्ह्हड़, शोख, चंचल, इठलाता  इतराता गुजरा है एक साया घर से  शायद उसकी परछाई होगी... जमा किया होगा उसने  खामोश गुफ्तगू के परतों को, सितारों से भरी महफ़िल में बिखरी एक तन्हाई होगी. झांकते होंगे एक दुसरे की आँखों में बेहिस, अधूरी होंगी बातें, रात अभी गयी भी न होगी  कि भोर आई होगी .........

एक और नवम्बर

नवम्बर का महीना था वो, शायद २३-२४ नवम्बर, जब चाणक्य सिनेमा की टिकट खिड़की पे देखा था तुम्हे. मेरी हताश-निराश,खानाबदोश सी ज़िन्दगी में तुम यूँ आए थे,  मानो सहरा में बरसों बाद बारिश ने दस्तक दे दी हो, बे ख्वाब, बे मकसद भटकती ज़िन्दगी को एक ख्वाब, एक मकसद मिल गया, सारी ख्वाहिशें, हर आरजू , हर एक जूस्तजू सिमट तुम्हारी बाहों मे आ गए थे. अपनी आँखों के सपनो को तुम्हारी आँखों में सजते देख रहा था, मेरी आँखों में दफन हर  एक सपना अंगडाई लेने लगा था, हर सूखी शाख पर फिर से कोपलें निकलने लगीं, एक लम्बे पतझड़  के बाद बहार ने दस्तक दी थी.  नासमझ सा, बरसों का भूखा टूट पड़ा था इन खुशियों पर....हर पल में कई जिंदगिया जी रहा था, इस बात से बेखबर... की तुम्हार दम सा घुट जायेगा ... दम सा घुटने लगा था तुम्हारा.. भूल बैठा था मेरे सपनो के आशियाने में मेरी गोल्ड -फिश के सपने कहीं न कहीं दफन हो रहे होंगें. एक दिन तुमने खुद को Cleopatra  कहा. हैरान परेशां तुम्हारे चेहरे को देखता रहा, 'पागल..' बस इतना कह पाया था तब .... Cleopatra  वो तो मेरे जैसी रही होगी.... अपनी हठ-धर्मिता, स्वार्थ में अँधा... हर जगह गुब

चलते -फिरते

१) शाम की लालिमा ओढ़े विशाल व्योम को देखा, रात को जलते बुझते जुगनू से कुछ  सपने, अब आसमान छोटा  और सपने बड़े लगते हैं मुझे!  २)  उसकी आवाज़ वादी में गूंजती रहती है, कहते हैं वो बहुत सुरीला था कभी, पर लोग अब उसे कश्मीर कहते हैं... ३) वो आग जैसी थी, सूरज सी गर्म   उसके एक  इशारे पर हवाएं अपना रुख बदल लेती थी, सुना है कल अपन घर जला बैठी है वो.... ४) बहुत ऊँचा उड़ाती थी वो, आसमान में सुराख़ कर आई, सुना है उस सुराख़ से खून टपकात है उसका....

वक़्त

तुम नहीं थे , मैं खुश रहता था, तुम कहीं नहीं हो सोच दिल बहल जाता था, मैं दुखी  हो जाऊंगा, जब तुम आओगे यह सोच अक्सर दहल जाता था..... ऐसा ही कुछ हुआ भी.... तुम आये  और ....... आखिर क्यों.... तुम्हारे होने का एहसास भर भीतर से गुदगुदा  देता था, दुःख, रंजो-गम, परेशानियों  का वजूद दिल से मिटा देता था... अब तुम्हारे होने का एहसास  तुम्हे खोने के एहसास से दुखदाई क्यों है? तुम नहीं होके भी होते थे... अब तुम  हो के भी नहीं हो, फिर अँधेरे में भी  ये परछाई क्यों है.... अब ऐसा क्या बदल गया, रिश्ते का सूरज साँझ में क्यों ढल गया... तुम वही हो, मै भी वैसा ही हूँ  बस जज्बात पराये हैं,  वक़्त ये कैसी चाल चल गया, दिल बुझ  गया, अब रातें सुनी हैं, फिर तुम्हारे आते ही मैं क्यों जल गया? तुम नहीं होते हो तो  करवटें लेता है वक़्त मेरी ज़िन्दगी में.. तुम आते हो, और तुम्हारे हो कर भी न होने का  सबब पूछते हैं ये गलियां ये मंज़र,  मेरी इस ज़िन्दगी में... मैं चुपचाप भाग लेता हूँ,  खिडकियों को ढांप देता हूँ,  आईने से ऑंखें नहीं मिला पाता हूँ  तुमसे सामना न हो जाये सोच के  यह घबराता हूँ, पता नहीं किस से छिप के भाग

अरमानों की चिता

वहां के लोग त्रिशंकु हैं, या वो जगह ???? नहीं जानता कोई..... हर पल कहीं न कहीं सुलगता रहता है  पल पल जिंदगानियां बदलती हैं, शहर ये हर पल जीता और मरता रहता है . कहते हैं कभी बर्फ में खो जाती थी  चमक सूरज की   धुंध में देवता रमते थे जहाँ  अब धुआं-२ सी आबोहवा है इसकी, भटकते रहते हैं बंदूकधारी दानव यहाँ... सोचता हूँ यूँही  तेरे बारे में ये 'काशीर' तेरी वो थाती ... तेरा गौरव चिनाब और वो झेलम का तीर! देखता हूँ तेरा दामन और रोता हूँ,  इस पर हर जगह दाग सा बना क्यों है ? कभी पाक, कभी नापाक  हर हाँथ तेरा खून से सना क्यों है ? न जाने कितने वादे तुझको भरमाते हैं  ज़न्नत कहते हैं लोग तुझको,सही तो कहते हैं, तू ज़न्नत ही होगा तभी तो  जिंदा लोग तेरे दर से कतराते हैं.... तेरी हवा में खून की बू सी आती है  थुथने भर जाते हैं जान हलक में अटकने लगाती है  और मौत कभी भी छू सी जाती है.. धूं धूं कर जलती है तेरे अरमानो की चिता ज़िन्दगी सहमी-२ सी है और मौत की हर वक़्त शान है हैवानियत हर वक़्त इतराती है  तेरा लिहाफ वर्षों से लहूलुहान है. शायद तू मुर्दों की एक बस्ती है  या कहूं की एक जिंदा शमशान है ...   

उजाले की आस

उस झोपड़ी के आगे  दिया रोज टिमटिमाता है, सूरज के बुझते ही वो बूढ़ा रोज चिराग जलाता है. अँधेरा घना है सूरज रास्ता भटक जायेगा कहता है और मुस्कुराता है. दिया जला हर मौसम में  दिवाकर को अपने घर का पता बताता है. कह कर गयी थी वो उससे की वो चाँद है सूर्य किरणों से ही जलती है रौशनी में ऑंखें चौधियाती हैं  इसलिए छिप कर अँधेरे में निकलती है. तबसे किसी ने उसे थकते नहीं देखा  कहते हैं उसके घर उम्मीदे बरसती हैं. उजाले की आस में जीता है हर रोज अँधेरे की सांसे उसकी देहरी लांघने को तरसती हैं. उजाले का पुजारी जो ठहरा सूरज से लाली चुरा चाँद को चमकता है गुम न हो जाये अँधेरे में सूरज कहीं इसलिए दिया जला भोर तलक सूरज को रास्ता दिखलाता है. तन से बूढ़ा है, पर मन से जवान, रुकन,थकन जैसे अहसासों से बिलकुल अंजान,. तिमिर नहीं आता कभी उस घर के आस-पास लाखो जुगनू बसते हैं उस घर में बस्ती है वही उजाले की आस...... कहते हैं न जहाँ रौशनी होती है वहां कभी अँधेरा नहीं होता.....

कुतरे पंख

पंख पसार कर हौसले का विस्तार  तोड़ कर हर बंधन  छूने चली वो विशाल गगन  परों में समेटे दूरियां, आसमान छू आयी वो, कल्पनाओं से परे, अपने हौसले के संग, कतुहलता से भरे लोग उसे देखने को थे लालाइत  सूरज भी देख उसका दुस्साहस था दंग. आसमां में एक सुराख़ सा दिखने लगा था, विजयी मुस्कान लिए अपने घरौंदे में लौट आई. हर तरफ उसके साहस का चर्चा, उसके  हौसले का दंभ.. किसी पुरुष मन को नहीं भाई..  सुबह लहूलुहान सी घोसले के निचे वो पड़ी थी   कुतर दिए गए थे उसके पर, उसे घेरे भीड़  खड़ी थी, उस दहलीज पर यमराज डोली लिए थे खड़े, मायूस था मंजर, खून से नहाये कुतरे पंख वंही थे पड़े. सांसें रुक गयीं थी, जान जिस्म में थी दफ़न, एक विशाल जन समूह जा रहा था अंतिम यात्रा में  ओढ़ाये एक सम्मान का कफ़न. सूरज ने छिपाया अपना मुंह  घनघोर काली बदरिया घिर आई कल तक साहस जहाँ बिखरा पड़ा था वहां मौत ने मातम की चदरिया फैलाई. अग्नि ने सौहार्द पूर्वक उसे अपनी अंचल में लपेट उसके होने का निशां मिटा दिया. आसमां के उस सुराख़ से खून टपक रहा था इन सब से बेखबर, एक उत्साही कुतरा पंख   फिर से आसमां छूने को बेकरार  अभी भी फुदक रहा था......

माँ, मैं और तुम!

सूरज निकलता है और शाम में ढलता है, ऋतुएं बदलती है और काल-चक्र चलता है.  बस तुम नहीं हो.....  अब मैं बिन कहे माँ के दिल  की हर बात जान लेता हूँ... उसके हर कहे-अनकहे बातों को  बेहिचक मान लेता हूँ... मैं यह सोच खुश हूँ, माँ बहुत खुश होगी.. पर माँ को लगता है  मैं चुप हूँ और मेरी ख़ामोशी बहुत बोलती है.. सुनती ख़ामोशी की सदाओं  को मेरी और हर पल उन्हें तोलती है कहती है, तू बहुत बदल गया है, तन्हाई के सांचे में ढल गया है, एक अजीब सा ठहराव सा आने  लगा है तेरी गति में.. तू आदमी नहीं मशीन हो गया है, नूतन नवीन जीवन में प्राचीन हो गया है. अब मैं माँ को बावला सा नज़र आने लगा हूँ, और माँ मुझे बावली सी... उसे नज़र आती हैं तुम्हारी स्याह यादें, प्रत्यक्ष, परोक्ष एवं उतावली सी.. तुम्हे गए ज्यादा वक़्त तो नहीं हुआ, तुम नहीं हो.. फिर भी किसी निराशा ने तो मुझे नहीं छुआ... मैं मुस्कुराता हूँ, ये बातें, माँ को समझाता हूँ, कहता हूँ माँ देख.. सब कुछ तो यथोचित ही तो चल रहा है, कल भी यूँ ही जलता था ये सूरज  आज भी तो जल रहा है.. कहती है वो, सब कुछ तो नहीं है वैसा, कहता है तू मुझसे जैसा.. कल तक तू तो बच्चा था,  अ