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जुलाई, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

खँडहर

गहरे ज़ख्मों को तन से लगाये, हालाती थपेडों से चोट खाए, कभी धूल-धूसरित , कभी बरखा में नहाये। हर-दम सुनता हूँ उन्हें , बाते करते , इधर से आते जाते, गाते गुन-गुनाते , बुद-बुदाते, अपने वर्तमान पर अफ़सोस जताते। कई दौरों के गवाह , कई युगों से मूक दर्शक बन, धूप में तप , समय की बेदी पर छन, खड़े हैं सर ऊँचा कर आसमां में , नंगे तन। कुछ किवन्दन्तियाँ , कुछ जग जाहिर , कुछ जानी-अनजानी, हर एक ईट , हर एक पत्थर सुनाता है एक कहानी, कही खरोचों , कहीं ख़राशों , कभी खामोशी की जुबानी। ये ईमारत और इसकी हर दीवार , वक़्त के साथ बदल जाते हैं, कुछ खड़े हैं , कुछ गिरते हैं , कुछ शाम के साये में ढल जाते हैं, शालीनता से मुस्कुराते हैं , अपनी यादों में जल जाते हैं। गवाही देते रहते हैं अपने गौरवशाली अतीत का, वक्त के के साथ बदल जाने की , प्रकृति के रीत का, किसी कोने में कैद नफ़रत तो दिल में दफन प्रीत का, अपनी हार और काल-चक्र के जीत का। सोचता हूँ , शायद हर गौरवशाली अतीत का वर्तमान खँडहर ही होता होगा!