सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

रिश्ता

हर रोज ये शाम कितनी आसानी से सूरज को बुझा देती है! काम इतनी सफाई से होता है कि सूरज की आग का एक कतरा तक नहीं बचाता. रात अन्देरी गलियों में भटकती रहती है. और हर रोज सुबह अपने साथ एक नया सूरज लाती है. जैसे कि पिछली शाम कुछ हुआ ही नहीं था..... एक रोज ऐसे ही,  किसी रिश्ते के सूरज को बुझाया मैंने... लौ तो बुझ गई.. पर आग अभी तक बाकी है... धुंआ धीरे-२ रिश्ता रहता है.... आग सुलगती रहती है... मैं रात की तरह इस रिश्ते की अँधेरी गलियों में भटकता रहता हूँ. कमबख्त न ये रिश्ता बुझता  है, न सुबह आती है!

रावण दहन

भू-२ कर स्वाहा होने लगा रावण.. नेता जी के तीर ने रावण की आहुति दे दी थी... 'वह' परेशां सा रावण दहन का यह दृश देखता रहा.. अब उसे भी किसी नेता को तलाशना होगा, नेता तीर चला उसके अन्दर छुपे रावण का दहन कर देगा.. खुश हुआ एक पल को..  नेता की तलाश शुरू हो गयी... पर हर चेहरे के पीछे उसे कोई ना कोई रावण जरुर दिखा.. क्या करे... भला  कोई रावण खुद का दहन भी करता है क्या?  क्यों कोई खुद को जलाएगा? फिर वो क्यों उतारू है वह अपने अन्दर के रावण को मारने को? राम की तलाश अधूरी रही... सोचते -२ उसने सिगरेट जलाई.. मुस्कुराया ...  सोच खुश था..... कि अब अन्दर का रावण दहन होगा... ना भी हुआ तो  कभी ना कभी तो अन्दर के  रावण का दम घुट ही जायेगा !

गिरवी

कुछ था जो अब नहीं है.. बेतहाशा दौड़ता रहता हूँ उसकी परछाई पकडे.. वक़्त बदला तो नहीं  पर उसकी चाल नई है ... एक-२ कर जाने  कितने पैबंद लगाये.. चादरे बदली, कई राज़ छुपाये.. अब भी बोझिल है ज़मीर, गुनाह जो कई हैं! कुछ पता हूँ तो टीस सी उठती है अब.. दिन सोने नहीं देता. रात से नींद रूठी है.. ना मैं गलत हूँ और ना ही तू .. फिर जाने कौन सही है... वो तेरे थे उन्हें आना ही था.. लौट आये हैं तेरी कलाइयों में..  तू मुस्कुराती है और मैं तुझसे नज़ारे चुराता हूँ.. दूर भटकता हूँ तुझसे अपने  दिवा स्वप्नों की परछाइयों में... हंसी रूठी -२ सी है उस रोज से जब बाज़ार में खुद को बिकाऊ पाया था. मेरे कुछ सपनों की कीमत पर माँ जब तुने, अपने कंगन सुनार के पास गिरवी रखवाया था... 

साहिल और समंदर

साहिल अब भी वहीं खड़ा मुस्कुरा रहा था, जब उतावली सी उस लहर ने साहिल को भिगाया था. साहिल खामोश... लहर पलटी और गुस्से से साहिल को एक और टक्कर मारा.. और खुद ही साहिल के पत्थरों में उलझ कर रह गई.. मानो साहिल की बांहों में बिखर सी गई हो .. "आखिर तुम चाहते क्या हो?"साहिल की बाँहों से सरकती लहर ने पूछा.. प्रत्योतर ख़ामोशी... "जब मैं दूर होती तो तुम पर प्यार सा आता है, पास आती हूँ तो नफरत सी होती है तुमसे.. क्यों खिची चली आती हूँ तुम्हारी ओर मैं... क्यों ? " कुछ कहना चाहता था साहिल, लब खोले भी.. पर हमेशा की तरह उसकी आवाज़ लहरों के शोर में कहीं गुम हो कर रह गई.. ये समंदर की लहरे कभी चुप हो तब तो साहिल की बात सुने.. उदास सी लहर वापस जा रही थी  ...सोचती .. कितना भी भागे ,उसे वापस आना ही था .. साहिल को चूमे बिना भी नहीं रहा जाता उसमे ... साहिल की बाहों मे बिखर .उसे पूर्णता  का एहसास होता है ...   और साथ ही साथ अपनी लघुता का भी... इधर.. साहिल एक तक लहर के वापसी का इंतज़ार करने लगा.. दोनों ही जाने थे, एक दुसरे के बिना वो अधूरे हैं.. अस

जलन

आखिर मेरी खता क्या है? जब भी सूखता हूँ,  गीला कर जाते हो! तनता हूँ और तुम गिराने आ जाते हो.  मेरी हस्ती को मिटने की कोशिश कर तुम क्या पाते हो? उस रोज उकता कर साहिल ने समंदर से पूछा ... समंदर एक कुटिल मुस्कान मुस्काया.. एक लहर से साहिल के कन्धों को थप-थपाया बोला... मैं अनन्त , अथाह और अपराजेय हूँ.... पर तुमसे जलता हूँ... क्योंकि तुम वहां से शुरू होते हो.. जहाँ मैं ख़तम होता हूँ..... 

फिंगर प्रिंट्स

रोज भागते भागते उसी झाड़ी तक जा रुक जाता. पिछली कुछ सर्दियाँ और एक हसीं चेहरा उन्ही झाड़ियों में कहीं गुम हो कर रह गए थे............ उन झाड़ियों को वो यूँ देखता मानो उसे यकीन था ... कि गुजारी हुई सर्दियाँ और गुमशुदा सा वो चेहरा अचानक हीं झाड़ियों से बाहर आ जायेंगे... उसकी धड़कने जिंदा , ऑंखें खुली थीं.. कदम दर कदम बढ़ता चला जा रहा था... पर उसका ज़ज्बात सो गया था... मुर्दा सांसें, कुछ बीते पल औरकुछ सूखे गुलाबों की माला पिरोये था, लुटा कर, सब गवां कर आँखों में सपने संजोये था... शांत मगर उदासीन मुस्कान, लिए एक निरीह हंसी, घोले थकान, उस रोज थाने में रिपोर्ट लिखवाने गया था आँखों से कोई उसके सपने चुरा ले गया था.. चोर नहीं पकड़ा गया, पर जाते जाते अपनी पहचान बता गया.. लोग कहते है.. उसकी यादों में, 'तुम्हारे' फिंगर प्रिंट्स मिले हैं.....

घुंघराला सा एक रिश्ता !!

उस रोज तुम्हारी बातों ने मुझे और उलझा कर रख दिया, पहले ही क्या कम उलझन थी, अपने रिश्ते को ले कर? हमारा तुम्हार रिश्ता भी कितना उलझा-२ सा है.. बिलकुल तुम्हारे घुंघराले बालों की तरह. तुम्हारे घुंघराले बाल तुम पर जचते हैं, और यह घुंघराला सा रिश्ता हम (दोनों) पर.. एक लट सुलझाओ तो दूसरी उलझ पड़ती है.. अपना यह रिश्ता भी तो है कितना अजीब, कुछ-२ तुम्हारे जैसे, कुछ-२ मेरे जैसे, और रिश्तों की भीड़ में सबसे अलग.. एक पागल सा...... अपने आप सा इकलौता . तुम्हारी उलझी सी उन लटों में हाँथ फिराना  अच्छा लगता था, अब इस उलझनों से भरे रिश्ते के परतों में अपनी उंगलियाँ घुमाता रहता हूँ.. जब कभी तुम्हारे बालों को सीधा करता, और  कोई बाल टूटता.. तुम्हारी चीख निकल जाती थी.. अब इस रिश्ते को सीधा करने बैठता हूँ, और  कोई एक बारीक सी डोर टूटती है.. मेरी चीख निकल जाती है.. कल जब तुम्हारी फोटो देखि तो जाना कि तुमने अपनी उलझी लटों को सीधा कर छोड़ा है, लगा... तुम बदला ले रही हो.. आखिर मैंने भी तो इस रिश्ते को दिखाने को सीधा रख छोड़ा है.. वैसे मैं इन दोनों कि फितरत से वाकिफ हूँ. अपन यह रिश्ता और तुम्हारे बाल.. घुंघराले

Recession जैसी एक लड़की!

कुछ   रिश्ते  कितने  अजीब  होते  हैं  ना? हम  जानते  हैं, बुझते हैं, पर उन्हें  समझ  नहीं  पाते! लड़कों का एक झुण्ड बैठा, रोज तम्हे देखता रहता है, तुम हंसती हो, मुस्कराहट उनके चेहरे पर आती है. तुम अपने उलझे बालों को सुलझाती हो और चमक  उनकी आँखों  में  आती है. Canteen में बैठे-2 हर  शाम  मैं   उस झुण्ड  को तुम्हे देखते हुए देखता हूँ! तुम उन्हें नहीं जानती शायद. .  या जान कर भी अंजान हो. तुम्हे याद भी न हो, जब तुम एक रोज उदास, मायूस  से बैठी थी, और वो झुण्ड? तुमसे कही ज्यादा उदास, मायूस था! लेकिन जब उस रोज झुण्ड के सब लोग उदास थे,  तुम आई, तम्हे उनकी उदासी से सरोकार ही क्या?  उनकी उदासी तो तुम्हे छू कर भी नहीं गुजारी! पर! तुम खुश थी और वो बेमन ही तुम्हारी ख़ुशी में शरीक हो गए ! आखिर क्यों?  यह कैसा रिश्ता है? रिश्तों की समझ नहीं है मुझे, और नाही कभी इस रिश्ते को समझ पाउँगा, यह रिश्ता भी कुछ विकासशील देशों और अमेरिका के रिश्ते  जैसे ही कुछ होगा ! Recession अमेरिका में आता है, और market अपना धराशाही हो जाता है! उधर कर्जे में  अमेरिका डूबता  है, और इधर हमारे शेयर. . आज शा

एक मुलाक़ात....

कल सपने में मिली थी वो.. मेरी कल्पनाओं से परे.. आँखों में हंसी सपने भरे.. चहरे पर मुस्कराहट लिए... पग-२ खुशियों की आहट लिए.. हर हंसीं चहरे से हंसीं... नूतन नवीं... हैरान परेशां मैं.. उसकी आँखों में झाँक रहा था.. मंत्र मुग्ध, सम्मोहित सा, उसके चहरे को ताक रहा था.. बढ़ा हांथों को उसने मेरे चहरे को छुआ.. एक सिहरन सी हुई बदन में... दर्द मिट से गए.... लगा यूँ भगवन ने खुद ही दी है एक दुआ... कौन हो तुम ? पूछा मैंने.. पलकें झपका.. होठो को कर गोल.. बोली ज़िन्दगी हूँ मैं.... ज़िन्दगी.... चौका था मैं उस बात पर.... अगर तुम ज़िन्दगी हो तो  वो कौन है जिसे मैं जानता हूँ... जीता आ रहा हूँ जिसके साथ, आज तक जिसे अपना मानता हूँ? तू पागल है बोली वो... वो भी मैं ही हूँ... पर तुने बस मेरे एक रूप को चुना है  जीवन की अपनी इबारत उस रूप से बुना है... तू बरसों पहले के वक़्त में रुक गया है.. तन कर खड़ा होना था जहाँ वहीँ झुक गया है.... उठ, आगे बढ़, उंगली थाम मेरे साथ चल... जिसको तू जी रहा है वो आज नहीं, है तेरा कल... तू काँटों में क्यों में क्यों उलझा पड़ा है.... गुलाब देख.... यादो