हर रोज ये शाम कितनी आसानी से सूरज को बुझा देती है! काम इतनी सफाई से होता है कि सूरज की आग का एक कतरा तक नहीं बचाता. रात अन्देरी गलियों में भटकती रहती है. और हर रोज सुबह अपने साथ एक नया सूरज लाती है. जैसे कि पिछली शाम कुछ हुआ ही नहीं था..... एक रोज ऐसे ही, किसी रिश्ते के सूरज को बुझाया मैंने... लौ तो बुझ गई.. पर आग अभी तक बाकी है... धुंआ धीरे-२ रिश्ता रहता है.... आग सुलगती रहती है... मैं रात की तरह इस रिश्ते की अँधेरी गलियों में भटकता रहता हूँ. कमबख्त न ये रिश्ता बुझता है, न सुबह आती है!
कभी -कभी बाज़ार में यूँ भी हो जाता है, क़ीमत ठीक थी, जेब में इतने दाम न थे... ऐसे ही एक बार मैं तुमको हार आया था.........! .... गुलज़ार