१६-चिट्ठियां, २२- ग्रीटिंग कार्ड्स, ४८-सूखे गुलाब, ७६-सर्दियों के दिन, १५-रतजगे, १७००-घंटो की फोन पर की गयी बातें, बंटवारे के बाद मेरे हिस्से इतना सब आया, तुमने भी इतना ही कुछ पाया, जितना तुमने, उतना मैंने, गवाया... साथ देखे फिल्मों के पुराने टिकट नज़रे बचा, मैंने तकिये के नीचे छुपाये, मानाने को लिखी थी जो कवितायेँ कभी चोर की तरह तुमने अपनी मुट्ठी में दबाये, तुम्हारी बंद पड़ी घडी, जिसका कांच बस से उतारते वक़्त चटक गया था-मेरे हाँथ, मेरा ख़राब म्प३ प्लयेर, जो अपनी छिना झपटी में टुटा था, तुम्हारे साथ.. दिन तुम्हारे हुए, रातें मेरी ... अपने - अपने रास्ते भी बांटें हमने ... अब जब मैं अपनी रातों को जगाता हूँ, खिड़की से झांकती-२ रात गुजर जाती है.. और मैं रात को गुजरते हुए ... खिड़की से देखता रहता हूँ... सोचता रहता हूँ अगर मैं बटवारें में मिली साड़ी चीजें तुम्हे लौटा दूं, तो.... मेरी नींदें जो तुम्हारे हिस्से आई थीं क्या तुम मुझे लौटा दोगी?
कभी -कभी बाज़ार में यूँ भी हो जाता है, क़ीमत ठीक थी, जेब में इतने दाम न थे... ऐसे ही एक बार मैं तुमको हार आया था.........! .... गुलज़ार