सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

मई, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बंटवारा

१६-चिट्ठियां, २२- ग्रीटिंग कार्ड्स, ४८-सूखे गुलाब, ७६-सर्दियों के दिन, १५-रतजगे, १७००-घंटो की फोन पर की गयी बातें, बंटवारे के बाद मेरे हिस्से इतना सब आया, तुमने भी इतना ही कुछ पाया, जितना तुमने, उतना मैंने, गवाया... साथ देखे फिल्मों के पुराने टिकट नज़रे बचा, मैंने तकिये के नीचे छुपाये, मानाने को लिखी थी जो कवितायेँ कभी चोर की तरह तुमने अपनी मुट्ठी में दबाये, तुम्हारी बंद पड़ी घडी, जिसका कांच बस से उतारते वक़्त चटक गया था-मेरे हाँथ, मेरा ख़राब म्प३ प्लयेर, जो अपनी छिना झपटी में टुटा था, तुम्हारे साथ.. दिन तुम्हारे हुए, रातें मेरी ... अपने - अपने रास्ते भी बांटें हमने ... अब जब मैं अपनी रातों को जगाता हूँ, खिड़की से झांकती-२ रात गुजर जाती है.. और मैं रात को गुजरते हुए ... खिड़की से देखता रहता हूँ... सोचता रहता हूँ अगर मैं बटवारें में मिली साड़ी चीजें तुम्हे लौटा दूं, तो.... मेरी नींदें जो तुम्हारे हिस्से आई थीं  क्या तुम मुझे लौटा दोगी?

ए साँझ.............

भानु गमन की ओर अग्रसर, अस्ताचल पर लालिमा प्रखर, कोलाहल को उतारु खगेन्द्र छू कर लौटे शिखर- काट दिवा निर्वासन अनोखा तुम्हारा प्रपंच, अनोखा प्रलोभन ए साँझ.............  बिखरी साँझ किरण, संध्या आगमन, तिमिर आह्वान,  दिवाकर अवसान, सायों का प्रस्थान, खोलती मेरे यादों की थाती अकिंचन... ए साँझ.... व्याकुल आने को, शशि स्वार्थी रोम रोम पुलकित कर, जाते रश्मिरथी  शून्य का विहंगम- दृश्य अलौकिक मेघों में भरे रंग नैसर्गिक  अनूठी तेरी कुंची, अनूठी ये चित्रकारी.. ए साँझ... पस्त मन के विचित्र विकृत विचार हर्षाते सपने आँखों में निराकार सागर तट पर जब भी सूरज बुझाता हूँ... कल लौट के आने का  दिनकर का मौन प्रचार शत-२ सम्मान , शत-२ नमन ए साँझ....

किस्तों की वो मौत

उफ़ ... कितनी दफा फोन किया...... कुछ फूल भेजे .... कोई कार्ड भेजा.... नाराज़ जो बैठी थीं .... और हर बार तरह, उस बार भी  तुम्हे मानाने की कोशिश में नाकाम हुआ मैं... तुम्हे मानना मेरे बस बात थी ही कहाँ... जितना मनाओ, तुम उतनी नाराज़.... वैसे नाराज़ तो तुम्हे होना भी चाहिए था... सर्दी जो हो गई थी तुमको, दिसम्बर की उस बारिश में भींग.. माना ही कहाँ था मैं.... खिंच लाया था भीगने को .... घर पहुचने से पहले .. हमारे छींकों की आवाज़ घर पहुंची थी.... दाँत किट-किटाते जब तुम्हे घर छोड़ बहार निकला तो लगा अलविदा कहते ही मेरे अन्दर का कोई हिस्सा मर गया हो... बोला तो तुमने फोन पे लिख भेजा... तुम्हारी मौत तो किस्तों में ही लिखी है मिस्टर... हर रोज ऐसे ही मारूंगी  तुम्हे..... कतरा-२, किस्तों में... हंसा था जोर से किस्तों में मिलने वाली  एक हसीन  मौत को सोच , और फिर कितनी बार कितनी किस्तों में मरा.. मुझे याद ही कहाँ... अब भी याद कर के हँसता हूँ... सालों बाद की अपनी किस्तों की ज़िन्दगी देख.... किस्तों-२ में मरना.... किस्तों में जीने