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अक्तूबर, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बूढ़ा बस स्टैंड

लड़ाई हुई थी अपनी आँखों की , पहली मुलाक़ात पर , वह बूढ़ा सा बस स्टैंड , मुस्कुराया था देख हमें , जाने कितनी बार मिले थे हम वहाँ , जाने कितने मिले होंगे वहाँ हम जैसे , वह शब्दों की पहली जिरह , या अपने लबों की पहली लड़ाई , सब देखा था उसने , सब सुना था , चुपचाप , खामोशी से , बोला कुछ नहीं। कहा नहीं किसी से , कभी नहीं। कितनी बार तुम्हारे इंतज़ार में , बैठा घंटों , जब तुमने आते-2 देर कर दी। जब कभी नाराज़ हो मुझे छोड़ चली गयी तुम , कई पहर , उंगली थामे उसकी , गोद में बैठा रहा उसके। उसके कंधे पर सर रख के। याद है वहीं कहीं गुमा दिया था तुमने दिल मेरा , हंसा था मेरी बेबसी पर वह , अब वह बूढ़ा स्टैंड वहाँ नहीं रहता , कोई fly over गुजरता है वहाँ से देखा था, जब आया था तुम्हारे शहर पिछली बार। कहीं चला गया होगा वह जगह छोड़ , उस बदलाव के उस दौर में , जब सब बदले थे , मैं , तुम और हमारी दुनियाँ ! अब जो सलामत है वह बस यादें हैं , और कुछ मुट्ठी गुजरा हुआ कल , याद आता है वह दिन, जब तुम्हारा दिल रखने को तुम्हारे नए जूतों की तारीफ की थ

काला दिल

सुबह सबेरे चिपका होता है आसमां से यूं , ज्यो सोते वक़्त , माथे की वह बड़ी सी लाल बिंदी , आईने से चिपका देती थी , दादी माँ , बढ़ता , घटता , बढ़ता है , मिटता है और आ जाता है , रंग बदलता रहता है , सुबह , दोपहर , शाम , क्यो ? जलता-2 रहता है , पर जलता है क्यो तू ? आसमां में मीलों दूर बैठा , जलन किस बात की है तुझे ? गुबार किस बात का है तेरे दिल में ? क्या धरती ने दिल तोड़ा था तेरा ? या हमसे जलता है तू ? धनक तेरी देख , सोचता हूँ मैं , हर वक़्त जलते रहने वाले सूरज , दिल तेरा कितना काला होगा !!!!!!!!!!!!!!!!!!!

दो रुपये की खुशी

बड़-बड़ ...... बड़-बड़ाता है , आसमां में देख मुसकुराता है , इशारे करते रहता है , अक्सर चलते देखा है , चलता ही रहता है , और चलते-2 खुद से बतियाता है..... ऐसा ही है वह..... कोशिश नहीं दिखती कुछ बन जाने की , चाह नहीं कुछ पाने की , फिक्र नहीं है खाने की सुध नहीं नहाने की ऐसा ही है वह.... बढ़ी हुयी दाढ़ी आधी सफ़ेद आधी काली , बदहाल कमीज़ , बिना बटन के , चिथड़ों सा पैंट , एक पैर मे काला , एक में सफ़ेद चप्पल बिलकुल दाढ़ी की तरह दो रंगी... ऐसा ही है वह..... बारिश से बचने को , जब छाता ले निकला था मैं , उस रोज तो पहली बार देखा था उसे... उसके अपने छाते के साथ.... छाता ?? छाते जैसा ही था कुछ , बस कपड़े की जगह रस्सियाँ लिपटी थी 2-3 तारों पर.... ऐसा ही है वह..... पागल है पर समझदार है , जनता है , उसे कब कहाँ होना चाहिए , सुबह नुक्कड़ की चाय की दुकान पर , कोई ना कोई चाय बिस्कुट दे ही देता है , शाम को पिछली गली मे समोसे की दुकान पर , वह जानता है , उसे खाने को जरूर मिलेगा और मिलता भी है..... तो दोपहर में सड़क किनारे के उ

दायरे

मेरा एक घर है इस महानगर में , 3 कमरे , रसोई घर और एक बड़ा सा हाल , हर कमरे से जुड़ी एक बालकनी , जहां से सारा शहर दिखता है , चाय की चुस्की लेते हुये मैं जब समंदर को देखता हूँ तो यूं लगता है , यह लहरें मेरी ऊंचाई तक आने को मचल रही हैं। बहुत सारे लोगों को जनता हूँ यहाँ और वो सब यह जानते हैं , मेरा घर उनके घर से बड़ा है बहुत बड़ा...... साल के किसी कोने में छुपी हुई छुट्टियाँ चुरा , माँ को ले कर , माँ के घर जाता हूँ शायद अपने पुराने घर। घर बड़ा ही छोटा सा है , बुढ़ापे की लकीरें उसके चेहरे पर साफ-2 नज़र आती हैं , रहता तो वहाँ कोई नहीं है अब , मगर माँ कहती है यादें बसती हैं कुछ वहाँ , जिन्हे सजोने वह हर साल आती है , मेरा अपना एक कमरा भी है जिसमे कोई खिड़की नहीं है कोई , बस एक रोशनदान है। जहां से बाहर कुछ भी नहीं दिखता है , मगर सुबह सबेरे सूरज की किरण मेरे बिस्तर तक आती है। माँ बड़े चाव से बताती है बचपन में मैं इन किरणों को मुट्ठी मे बांध लेता था.... डर के , कहीं मुझे छोड़ ना जाएँ यह..... एक आँगन भी है इस घर में , पास के पीपल के