अन्तः कथा अकथ अन्तः शक्ति जीर्ण सामर्थ्य अबोध्य ह्रदय स्वार्थ का वास भो मैं दास! आतंरिक अनुभूतियाँ विक्षिप्त आश्रय लोलुप मन मुह चिड़ाते करते उपहास अन्तः करण के उन्माद भो मैं दास! प्रेम लता सा फैलाव अंतर्वेदना का बहाव अन्तः दिवा रजनी ग्रसित चिर संचित निर्बलता का अट्टहास भो मैं दास! व्यक्तिगत नियति आडम्बर अन्तः ज्वाला प्रखर तना नभ में अभिमानी गर्वीले उच्छ्वासी का उच्छ्वास हां मैं दास! वसन से योगी कर्म से भोगी हलाहाल से ओत-प्रोत जिह्वा करती मधुर उवाच आह मैं स्वय का दास!
कभी -कभी बाज़ार में यूँ भी हो जाता है, क़ीमत ठीक थी, जेब में इतने दाम न थे... ऐसे ही एक बार मैं तुमको हार आया था.........! .... गुलज़ार