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न जाने क्यों?

न जाने क्यों? एक अजीब सा खेल खेलती हो तुम ज़िन्दगी, छीन जाती है लबों की मुस्कान यूं ही, चलते-२ भटक सा जाता हूँ, जैसे भटका हो एक मुसाफिर धुंध में कहीं. मंजिल ख्वाब सी नज़र आती है तो उन्ही ख्वाबों में नज़र आती है मंजिल वही. न जाने क्यों? एक अजीब सा खेल खेलती हो तुम ज़िन्दगी, हर कदम पर रोड़े फैलाती हो तुम तेरे इन पथरीले रास्तों पर चलता हूँ ठोकर खाता हूँ, गिरता हूँ संभलता हूँ हाँथ बढ़ा छू लेना चाहता हूँ, अपनी मंजिल को घने कोहरे में खो जाती है मंजिल कही. न जाने क्यों? एक अजीब सा खेल खेलती हो तुम ज़िन्दगी, पैरों से रिसते खून से एक निशान सा बनता जाता हूँ, तुम एक भंवर सी नज़र आती हो चलते-२ पैर डगमगाते हैं तो बैठ जाता हूँ एक दिवा स्वप्न की तरह सामने खड़ी मुस्कुराती हो, मुड-२ के देखता हूँ जब भी, जहाँ से चला था खुद को अब भी वही पाता हूँ साहिल के रेत से टकराता हूँ, छिटकता हूँ और बिखर सा जाता हूँ न जाने क्यों? एक अजीब सा खेल खेलती हो तुम ज़िन्दगी, सारे रिश्ते बेगाने से नज़र आते हैं पलकों पर ख्वाब टहलते हैं, फिर रूठ जाते हैं ठूंठ की मानिंद खड़ा