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अप्रैल, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कल

कोई आकृति नहीं , परछाइयाँ फिर क्यों हैं ? लगाव तो तनिक भर का नहीं , पर होता अलगाव नहीं क्यों है ? गलत हैं , फिर सही क्यों हैं ? जहां सालों पहले थे , अब भी वहीं क्यों हैं ? मूर्त ना हो तो ना सही , जख्म अब भी देते क्यों हैं ? न लिखित हैं , न उकेरे हुये , छाप इनकी अमिट क्यों है ? चैन से न दिन कटने देते हैं , रातों की नींद उड़ा देते क्यों हैं ? कहने को तो कुछ शब्द भर हैं , हर रोज , हर पल चुभते क्यों हैं ? नहीं मायने रखते हैं अब वह चेहरे , फिर उनके शब्दों की चुभन क्यों है ? शब्द यह अपने नहीं पराए ठहरे , तो इनके दर्द का सहन क्यों है ? आशय क्या है इन शब्दों के अब भी होने का ? कारण क्या है इन बेगाने उवाचों को अब भी सजोने का ? एक उम्र सी गुजर दी है तबसे , उन शब्दों का घाव अब भर क्यों नहीं जाता ? कैलेंडर पर कैलेंडर पलटता रहा हूँ वक़्त को , जो बीत गया है वह गुजर क्यों नहीं जाता ? जो बीत गया है वह गुजर क्यों नहीं जाता ?