कोई आकृति नहीं,
परछाइयाँ फिर क्यों हैं?
लगाव तो तनिक भर का नहीं,
पर होता अलगाव नहीं क्यों है?
गलत हैं,
फिर सही क्यों हैं ?
जहां सालों पहले थे,
अब भी वहीं क्यों हैं?
मूर्त ना हो तो ना सही,
जख्म अब भी देते क्यों हैं?
न लिखित हैं,
न उकेरे हुये,
छाप इनकी अमिट क्यों है?
चैन से न दिन कटने देते हैं,
रातों की नींद उड़ा देते क्यों हैं?
कहने को तो कुछ शब्द भर हैं,
हर रोज,
हर पल चुभते क्यों हैं?
नहीं मायने रखते हैं अब वह चेहरे,
फिर उनके शब्दों की चुभन क्यों है?
शब्द यह अपने नहीं पराए ठहरे,
तो इनके दर्द का सहन क्यों है?
आशय क्या है इन शब्दों के
अब भी होने का?
कारण क्या है इन बेगाने उवाचों को
अब भी सजोने का?
एक उम्र सी गुजर दी है तबसे,
उन शब्दों का घाव अब भर क्यों नहीं जाता?
कैलेंडर पर कैलेंडर पलटता रहा हूँ वक़्त को,
जो बीत गया है वह गुजर क्यों नहीं जाता?
जो बीत गया है वह गुजर क्यों नहीं जाता?
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