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बस यूं ही !

1) कभी यहाँ कभी वहाँ, कभी इधर कभी उधर, हवा के झोंकों के साथ, सूखे पत्ते की मानिंद, काटी थी डोर मेरी साँसों की, अपनी दांतों से, किसी ने एक रोज!   2) सिगरेट जला, अपने होठों से लगाया ही था, कि उस पे रेंगती चींटी से बोशा मिला,ज़ुदा हो ज़मीन पर जा गिरी सिगरेट, कहीं तुम भी उस रोज कोई चींटी तो नहीं ले आए थे अपने अधरों पे, जो..........   3) नमी है हवा में, दीवारों में है सीलन, धूप कमरे तक पहुचती नहीं … कितना भी सुखाओ, खमबख्त फंफूंद लग ही जाती है, यादों में!

Lost in translation

शूटिंग नहीं है आज कल खाली ही हूँ। अभी वहीं कर रहा हूँ जो अमूमन साल के 7-8  महीने   करना पड़ता है मुंबई में- ‘ काम ढुढ़ने का काम ’ । यह काम भी कुछ कम मज़ेदार नहीं है। सुबह उठे , एक दो फोन लगाए , किसिने मिलने को बुला लिया तो ठीक नहीं तो लैपटाप ऑन किया कोई फिल्म चला ली। काम की तलाश आज खत्म कल फिर फोन घुमाएंगे। एक दूसरा काम और भी है , शूटिंग खत्म होने के बाद प्रॉडक्शन से पैसे निकलवाने का काम। यह काम थोड़ा मुश्किल है। फोन घूमने के बाद सोचा कुछ लिखा ही जाए , बहुत कुछ है लिखने को , 4-5 आधी-अधूरी कहानियाँ , एक उपन्यास जिसे पिछले 4 सालों से पूरा करना चाहता हूँ , कुछ एक फिल्मों की स्क्रिप्ट भी हैं तो इंटरवल पर कबसे रुकी पड़ी हैं। पर पिछले काफी दिनों से से कलम के साथ रोमैन्स में मजा नहीं आ रहा है , जैसे कोई crisis है या writer’s block! मेरे लेखक और अभिनेता मित्र अरुण दादा कहते हैं “मन विरक्त सा हो गया है तेरा! वैसे जहां प्रेम है वही विरक्ति का वास भी होता है। प्रेम को भूलना आसान नहीं होता है , अतः घबराने की बात नहीं है , यह विरक्ति ज्यादा देर नहीं ठहरेगी , जल्दी ही वापसी होगी प्

कल

कोई आकृति नहीं , परछाइयाँ फिर क्यों हैं ? लगाव तो तनिक भर का नहीं , पर होता अलगाव नहीं क्यों है ? गलत हैं , फिर सही क्यों हैं ? जहां सालों पहले थे , अब भी वहीं क्यों हैं ? मूर्त ना हो तो ना सही , जख्म अब भी देते क्यों हैं ? न लिखित हैं , न उकेरे हुये , छाप इनकी अमिट क्यों है ? चैन से न दिन कटने देते हैं , रातों की नींद उड़ा देते क्यों हैं ? कहने को तो कुछ शब्द भर हैं , हर रोज , हर पल चुभते क्यों हैं ? नहीं मायने रखते हैं अब वह चेहरे , फिर उनके शब्दों की चुभन क्यों है ? शब्द यह अपने नहीं पराए ठहरे , तो इनके दर्द का सहन क्यों है ? आशय क्या है इन शब्दों के अब भी होने का ? कारण क्या है इन बेगाने उवाचों को अब भी सजोने का ? एक उम्र सी गुजर दी है तबसे , उन शब्दों का घाव अब भर क्यों नहीं जाता ? कैलेंडर पर कैलेंडर पलटता रहा हूँ वक़्त को , जो बीत गया है वह गुजर क्यों नहीं जाता ? जो बीत गया है वह गुजर क्यों नहीं जाता ?

अरण्य मेरी यादों का

अंधेरा बहुत है , फिर भी जगह जगह दीप जलते हैं , धुंध भी है , नमी भी है सब सजोया हुआ है.... पर कोई कमी सी है भरा हुआ है , भीड़ है , फिर भी खाली हैं , सजीव भी हैं , निर्जीव भी , रंगीन हैं , फिर काली हैं , हर रोज कुछ जा जुड़ती हैं दूर जाती हैं फिर मुड़ती हैं , कुछ गुमसुम , कुछ चित्कारती कुछ सोई -2 कुछ खोई-2 किसी ने कोई चेहरा उकेरा है , कुछ अपनी जगह नहीं बना पाईं , कुछ दबंग हैं , जिन्होनें अपनी कद से से ज्यादा जगह घेरा है। कुछ शक्ल , कुछ बेशक्ल एक तरफ अमावस , दूसरी ओर पूनम का बसेरा है। एक महल है , कई कमरे हैं , कहीं रंगीन शामें बिखरी हैं , कहीं छुपा कोई धुंधला सवेरा है। कुछ सुखी , कुछ रूखी कुछ सुर्ख , कुछ ज़र्द कुछ रेत की , कुछ पत्थर सी , कुछ खंडहर , कुछ इमारत , आड़े-टेढ़े अक्षरों से उकेरी इबारत , आसमान में ताने कुछ सीना , झुलसाती धूप में बहाती कुछ पसीना , कोई हल्की , कोई भारी , मूर्त-अमूर्त , कुछ हरे , कुछ ठूंठ , कहीं सच है , कहीं झूठ , कोई मुसकुराती , हँसती , रुलाती , धूप सी , छांव सी , सर्