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नवंबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

चाय गिरा एक पन्ना...

ऑफिस में बैठे बैठे कुछ वक़्त मिल गया... या यूँ कहूँ तो मैंने कुछ वक़्त चुरा लिया...कुछ लिखने की सोची.... घन्टों लम्बी मत्थापच्ची .. भीर कुछ नहीं समझ आया... लगा लेखनी पर धूल जम आई है.. देखा तो पाया धूल तो मेरी टेबल पर भी जम गई थी..कम ही पलट कर देखता हूँ ना पलट कर टेबल पर बिखरे पन्नों को... लोग भी कहते हैं रहने दो.. इसे देख   writer  वाली   feel  आती है... तो ऐसे ही छोड़ देता हूँ.. ज़िन्दगी की तरह पन्ने ही  बिखरे हों   तो कागज़ के पन्नो के बिखरने से फर्क ही क्या पड़ता है.... पर आज का दिन कुछ और ही था... आज धूल को जाना ही था.... एक-२ कर ... परत-दर-परत धूल हटता गया... टेबल पर बिखरे स्क्रिप्ट्स के बिच एक पन्ना हाथ लग गया...देख चेहरे पर मुस्कान बिखर गई.... सफाई छोड़... पन्ने की खूबसूरती में खो गया...   चाय गिरी थी ना तुमने उस दिन... टेबल पर... शायद ये भी उस सुनामी की चपेट में आ गया होगा... याद हैं ना उस रोज वो कांच का कप कैसे तुम्हारे हाथों में आते ही कैसे अस्तित्व हीन हो बैठा .. मेरी ही तरह... और.......   वो पन्ना बड़ा ही खुबसूरत लगा .. Biased  हूँ ना

जलते हुए सिग्रेट की आवाज़

कभी जलते हुए सिग्रेट की आवाज़ सुनी है तुमने? एक अजीब सी आवाज़, सन्नाटे को भेदती.. मानो उसे मिले हर ज़ख्म का हिसाब मांगती हो... कितनी मिलती है ना उसकी आवाज़ मेरे दिल की आवाज़ से....? सुन अपनापन सा लगता है. वही चीर-परिचित सदायें, वहीँ धुआ-२ सा माहौल.. कभी सुनना इस व्यथा को तुम, मेरे दिल की सदाओं जैसी ही लगेंगीं, आखिर दोनों एक ही तो हैं.. जनता हूँ, सुन कर यहीं सोचोगे कि तुमने कौनसे ज़ख्म दिए हैं मुझे? मैं भी सिग्रेट जला यही सोचता हूँ.. इसके सवाल बेमानी से लगते है... मगर जलन उसका क्या? मेरी और सिग्रेट की फितरत लगभग एक सी हैं.. बस फर्क इतना भर ही है सिग्रेट जलाते जलते बुझ जाती है.. और मैं बुझते-२ जल जाता हूँ... एक जल कर भस्म  हो जाता है और एक...... जितना बुझाओ उतनी ही शिद्दत से जलाता है.... एक बार जरुर जलाना सिग्रेट.. शायद बुझने से पहले ये उन सवालों को पूछ बैठे .. जो मैं जीते-जी, कभी ना पूछ पाऊं... एक कश जरुर लेना... शायद.. सिग्रेट की आत्मा को शान्ति मिले.. बुझने से पहले वो उन होठों  को छू कर गुजरे.. जिनसे अब मेरा नाम ... बमुश्किल ही निकलता हो....

इधर-उधर से.....

१)  ख्वाबों के बोझ से कुचले  आसमां में उडान का सबब धरती पर गिरा वो लहूलुहान परिंदा बता गया... २) उसे कोई त्याग की प्रतिमूर्ति कहता था, कोई महान, तो कोई देवी... सुना है वो कल रात  गुज़र गई, पर जीते जी किसी ने उसे इन्सान नहीं समझा.... ३) याद है  उस रात तुमने मेरे तकिये के नीचे कुछ अध् खिले सपने छिपाए थे, सुबह जब आँख खुली तो उनकी खुशबू से मेरा कमरा महका हुआ था... ४) जब भी तुम घर आये, तुम्हारे चहरे को डायरी में दर्ज किया, आज डायरी के पन्ने  पलटे तो देखा तुम्हारा सुर्ख चेहरा ज़र्द पड़ा था.... ५) तुम तो कुछ भी नहीं भूलते थे ना.. कल सामने से यूँ निकले जैसे कभी देखा न हो, शायद यादों के दरख़्त पर धूल जम आई होगी.... ६) उस चहरे से मासूमियत झलकती थी, कल देखा तो उस पर अनगिनत खरोंचे थीं, हवाएं जहाँ से गुजरती है अपने निशां छोड़ जाती हैं... ७) उस अछूत के घर रोशनी कम ही आती थी  पर कुछ दिनों से उसका घर गुलज़ार है, सुना है, सरकार  ने सूरज की रोशनी पर भी 'कोटा' लगा दिया है...... 

हाशिये

खुद के लघुता का एहसास कराते, ढलते सूरज के साथ बढ़ाते ये साये, शाम के साथ जवां होती तन्हाई, भूली बिसरी यादें, धुआं-२ ,  उलझे- उलझे रास्ते अनेक . जज्बात ... मटियामेट.... मुड के जाने के रास्ते बंद, मलाल हजारों, खुशियाँ चंद, कुंद, एहसासों का बगीचा, उस परी का सूना दरीचा, खुद को दिए अनंत आघात, वक़्त का कुठाराघात.. रिश्ते-नाते,अनकही सी बातें, आधी-अधूरी, अधजगी सी रातें,  डायरी मे बंद कुछ रुबाइयाँ, मुझ पर हंसती वो परछाइयाँ , वो अनगिनत से आक्षेप, कुछ हसीं से सपने.. पटाक्षेप.... 

रतजगे

अंगने में एक सपना खिला है, आज मैं खुश हूँ, दूर कहीं वो जूही की  कलि मुस्काई होगी.. छिटकी होगी चांदनी छत पे चाँद को देखा होगा 'उसने' शर्माया होगा चाँद , उसे छुपाने कोई बदरिया आई होगी. हवा ने कुछ कहा होगा, हौले से उस रुख को छुआ होगा  बिखर गयी होगी लाली उसके चहरे पर, शर्मा कर उसने अपनी पलकें झुकाई होगी.. खोला होगा उसने जुल्फों को अपनी चाँदी सी इस रात में  अंधियारी घिर आई होगी.. अब महक उठा है  मेरा कमर मोगरे जैसा चहका सा है मंजर  शायद  उसकी चुनरिया लहराई होगी... सुनता हूँ सायों की बातें मैं  अल्ह्हड़, शोख, चंचल, इठलाता  इतराता गुजरा है एक साया घर से  शायद उसकी परछाई होगी... जमा किया होगा उसने  खामोश गुफ्तगू के परतों को, सितारों से भरी महफ़िल में बिखरी एक तन्हाई होगी. झांकते होंगे एक दुसरे की आँखों में बेहिस, अधूरी होंगी बातें, रात अभी गयी भी न होगी  कि भोर आई होगी .........

एक और नवम्बर

नवम्बर का महीना था वो, शायद २३-२४ नवम्बर, जब चाणक्य सिनेमा की टिकट खिड़की पे देखा था तुम्हे. मेरी हताश-निराश,खानाबदोश सी ज़िन्दगी में तुम यूँ आए थे,  मानो सहरा में बरसों बाद बारिश ने दस्तक दे दी हो, बे ख्वाब, बे मकसद भटकती ज़िन्दगी को एक ख्वाब, एक मकसद मिल गया, सारी ख्वाहिशें, हर आरजू , हर एक जूस्तजू सिमट तुम्हारी बाहों मे आ गए थे. अपनी आँखों के सपनो को तुम्हारी आँखों में सजते देख रहा था, मेरी आँखों में दफन हर  एक सपना अंगडाई लेने लगा था, हर सूखी शाख पर फिर से कोपलें निकलने लगीं, एक लम्बे पतझड़  के बाद बहार ने दस्तक दी थी.  नासमझ सा, बरसों का भूखा टूट पड़ा था इन खुशियों पर....हर पल में कई जिंदगिया जी रहा था, इस बात से बेखबर... की तुम्हार दम सा घुट जायेगा ... दम सा घुटने लगा था तुम्हारा.. भूल बैठा था मेरे सपनो के आशियाने में मेरी गोल्ड -फिश के सपने कहीं न कहीं दफन हो रहे होंगें. एक दिन तुमने खुद को Cleopatra  कहा. हैरान परेशां तुम्हारे चेहरे को देखता रहा, 'पागल..' बस इतना कह पाया था तब .... Cleopatra  वो तो मेरे जैसी रही होगी.... अपनी हठ-धर्मिता, स्वार्थ में अँधा... हर जगह गुब