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एक और नवम्बर

नवम्बर का महीना था वो, शायद २३-२४ नवम्बर, जब चाणक्य सिनेमा की टिकट खिड़की पे देखा था तुम्हे. मेरी हताश-निराश,खानाबदोश सी ज़िन्दगी में तुम यूँ आए थे,  मानो सहरा में बरसों बाद बारिश ने दस्तक दे दी हो, बे ख्वाब, बे मकसद भटकती ज़िन्दगी को एक ख्वाब, एक मकसद मिल गया, सारी ख्वाहिशें, हर आरजू , हर एक जूस्तजू सिमट तुम्हारी बाहों मे आ गए थे. अपनी आँखों के सपनो को तुम्हारी आँखों में सजते देख रहा था, मेरी आँखों में दफन हर  एक सपना अंगडाई लेने लगा था, हर सूखी शाख पर फिर से कोपलें निकलने लगीं, एक लम्बे पतझड़  के बाद बहार ने दस्तक दी थी. 

नासमझ सा, बरसों का भूखा टूट पड़ा था इन खुशियों पर....हर पल में कई जिंदगिया जी रहा था, इस बात से बेखबर... की तुम्हार दम सा घुट जायेगा ... दम सा घुटने लगा था तुम्हारा.. भूल बैठा था मेरे सपनो के आशियाने में मेरी गोल्ड -फिश के सपने कहीं न कहीं दफन हो रहे होंगें. एक दिन तुमने खुद को Cleopatra  कहा. हैरान परेशां तुम्हारे चेहरे को देखता रहा, 'पागल..' बस इतना कह पाया था तब .... Cleopatra  वो तो मेरे जैसी रही होगी.... अपनी हठ-धर्मिता, स्वार्थ में अँधा... हर जगह गुबार फैलाने वाला.......खामोश था..... कैसे समझाता कि जिसके पहलु में कई जिन्दगानिया किलकारियां मारती हों.... जिसके साथ गुजरा हर एक पल ज़िन्दगी की किसी भी ख़ुशी से बड़ा हो, उसके साथ गुज़ारा हर लम्हा एक नयी सौगात जैसा हो...जिससे ज़िन्दगी भी जीने का हूनर मांगती हो  वो Cleopatra  कैसे हो सकती है..... 

  आपनो के दिल को दुखाने का काम तो मेरा है... डिसास्टर फैलाना तो मेरा  काम है. .... तू ऐसा कैसे कर पायेगी..... Cleopatra  .. मुस्कुराया था ...... पगली है ये लड़की यही सोचा..... उस दिन AIIMS के फ्लाई-ओवर के निचे बैठे थे न हम.. कंधे पे मेरे सर रख कहा था तुमने..." मैं तुम्हारे जैसा बनाना चाहती हूँ..... मुझे भी 'निहार' बनाना है..." बस खामोश था... आँखें नम हो आई थी.... 
कैसे समझाता 'निहार' होने का मतलब तुम्हें... 
'निहार' बन के क्या मिलेगा तुम्हे.... पगली....कुछ कहे, कुछ अनकहे सवाल.... दिल दुखाने की एक लम्बी फेरहिस्त ... नींद से लूका-छिपी खेलती रातें.... बेचैन-बेहाल , बदहवास रातें.... या फिर मीलों लम्बी मलाल......
'निहार' तुझे कैसे बताता वो खुद तुम जैसा होना चाहता है .... वो खुद एक गोल्ड फिश बनाना चाहता था... तुम जैसा ... बिलकुल तुम्हारे जैसा........
 उस दिन के बाद तुमसे दूर होना चाहता था.. दर सा गया था... नहीं चाहता था मेरा साया भी तुम्हे छू कर गुज़रे .... कहते हैं न की काज़ल की कोठारी में कितना भी बच के जाओ कही न कही कालिख लग ही जाती है... नहीं चाहता था तेरी ज़िन्दगी में एक बुरे सपने की तरह आऊं.... तुम्हारी अच्छाइयों से घबरा सा गया था.. जनता था एक दिन ये दिवा स्वप्नं जरूर टूटेगा... शायद  उन टूटे सपनो को फिर से देखने की हिम्मत न कर पाओ... तुम... शायद मैं खुद भी....... 

काश उन दिनों तुमसे दूर कर गया होता...... स्वार्थी मन बार बार तुम्हारी ओर ले जाता रहा.... खुद को रोकने की कोशिश की थी.... मगर शायद कमी सी रह गयी थी कहीं......  अपनी उठेद-बुन में गुम.. तुम्हारे और करीब आते गया.  ..एक छोटे से बच्चे की तरह दबोच तुम्हे सिने से लगा लिया था.....जान-बूझ के या अनजाने में .., भूल गया  हथेलियों में कैद चिडिया छटपटा रही है... दम घुट रहा है उसका....

" तुम बहुत नेगेटिव सोचते हो.... Be an optimist....किसी भी सपने को पाने के लिए एक उमीद किजरुरत होती है... उम्मीद मत हारना..... किस्मत   भी उनका साथ देती है जो आपना साथ देते हैं........".. तुम्हारी इन्ही बातों  से नाउम्मीदी के बवर में पड़े एक शख्स कौम्म्दी की किरण मिल गयी..... अब उम्मीद  का दामन थाम्हे आशावादी हो रहा था....बस यही न समझ पाया की कहाँ उमीद करना है कहाँ नहीं.... जाने बिना हर जगा एक उम्मीद की किरण नज़र आ रही थी...... जनता था कैसे भी मैं तुम्हारे लायक नहीं हूँ... फिर भी तुम्हे पाने की हसरत इन्ही दिनों जवान हुयी थी.....

 तू सच में पागल थी.. किसे सुधार रही थी .... एक-२ कर नाजेने कितनी बार दिल दुखाया होगा ... अब तो मुझे भी यद् नहीं तुझसे के पुछूं ........ हर गलती के बाद एक  SORRY....  अब ये शब्द भी बेमानी हो चला है.... कोई मतलब नहीं रह गया है....
तुम अपनी जगह सही हो..... कुछ हद तक मैं भी........ मगर क्या फर्क पड़ता है सही कोई भी हो.. तकलीफ तो होनी ही है तुम्हे हो मुझे हो.. हमारे अपनों को......ऐसा नहीं की मैंने को कोशिश नहीं की, फासले मिटने की हर कोशिश ने फसलों को और बढाया है.... जनता था मेरा स्वार्थ मुझे इस मुकाम पे लायेगा एक दिन...... मगर इतनी जल्दी.... ये सोचा न था.... हथेली में रेत को भिचने चला था ... रेत को निकलना ही था.... बढ़ते दूरियों के एहसास भर से एक-एक कर दिल हर अरमान धराशाही होने लगे हैं... तुम जा रहे हो दूर या मैं तुम्हे खुद से दूर करता जा रहा हूँ.... जो भी है..... कल भी ऐतबार था आज भी है और रहेगा भी... तुम्हारे फैसलों पे... जनता हूँ जो भी करोगे सही ही होगा...आपनो को दूर जाते देखना बहुत ही दुखदायी होता है.... तुम खुद को अलग कर रहे हो मुझसे ये फैसला आसान नहीं रहा होगा..... अगर तुम इस फैसले पे ए हो तो वजह जरुर होगी...... नहीं तो तुम ऐसा कभी नहीं करते....
         
याद है उस रात अपनी आँखों से निकल कुछ सपने दिए थे...कहा था संभल लेना.. मेरे पास मेरा अपना बस यही है.... संभल के रखना उन्हें...... गुजारिश है तुमसे... वो अपने तकिये के नीच कुछ सपनो कैद किया था तुमने..... किया था न तुमने? कभी फुर्सत मिले तो देखना कोई तो ऐसा सपना होगा जो तुम्हारे सपने से मेल खाता होगा.... कोई न कोई जगह जरुर होगी जहाँ हमरे सपने मिलते होंगें....... या मेरा कोई सपना जो तुम्हारा होगा.. या तुम्हारा कोई सपना मेरा होगा..... ..वक़्त के किसी मुकाम पे इन सपनो की मुलाकत जरुर होगी... इतनी गुंजाईश जरुर रखना की इन अधखिले , आधे अधूरे सपनो को जीने का मौका मिले...... जनता हूँ ये मुश्किल है  की तुम्हारे किसी सपने में मेरी कोई जगह हो..... कही हो तो बताना जरुर.....

उस रात जब तुम जा रहे थे नाराज़ हो.. धुंध से बहरे उस वीरान सुनसान सड़क पे ... स्ट्रीट lights ऐसी लग रही थी मानो हवा में अलाव जला रखा हो किसीने... एक अलाव तो मेरे सिने में भी दफन थी... रोशनी पे धुंध जयादा हावी थी उस रात....  आँसू के हर कतरे ने सिफारिश की तुम्हारी, कहा रोक लो .... हाँथ बढाया भी... मगर गुनाहों से भोझिल , मेरे कापते लबो से कोई आवाज न आई..
  तुम्हे जाते हुए देख रहा था.... तुम्हारे पैरों के निचे आये हर पत्ते ने दस्तक सी दी थी मेरे सिने में... धुंध ने धीरे-२ तुम्हे लपेट लिया था.. साया भी गुम गया कही... कदमो की आहात भी नहीं आ रही थाई... फिर भी वही खडा था... बहुत देर तक...

   एक उम्मीद, एक विश्वाश , एक आस यही दिया है तुमने..... बुबरा कभी भी ना उम्मींद  न होने के वादे पे अभी कायम हूँ .. उम्मीद है तुम्हारी... तुम्हारे वापस आने की ... विश्वाश है खुद को संभाल पाने की... आस तो ... तुम हो ना....

यह भी एक नवम्बर है... कितना अलग उस नवम्बर से ... मगर मेरे हालात अलग नहीं हैं... बस लोग चेहरे अलग हैं.. गुनेह्गर हूँ..... अपनी इस हालात का खुद ही जिम्मेदार हूँ.....  मगर वादा  रहा इस  हाल  में ना तुम्हे रहने दूंगा  .. और ना ही खुद  को कभी पाउँगा....
पिछली बार जब आये थे, मुस्कुराते हुए.. गुलमोहर की तरह..... ज़िन्दगी में मेरे.... उम्मीद है फिर से आओगे..... पिछली बार मिले थे तो कद्र नहीं कर पाया था.... तुम्हारी पहचान नहीं कर सका.... हीरे की परख तो परखी कर सकता है.. मैं एक आम सा आदमी...गवां बैठा तुम्हे......अबकी बार ऐसा नहीं होगा......

माफ़ी के लायक तो नहीं हूँ मगर कर देना अगर संभव हुआ तो......

तुम थे तो सब था ...... नहीं हो तो कुछ भी नहीं.......दिल की हर धड़कन कहती है... " दोस्त आजाओ या बुला लो....... "
मैं अभी वही खडा हूँ तुम्हारे इन्तिज़ार में......
तम्हारा 
'निहार'

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  यूं तो साल दर साल, महीने दर महीने इसे पलट दिया जाता है, मगर कभी- वक्त ठहर सा जाता है, मानो calendar Freez कर दिया गया हो. ऐसा ही कुछ हुआ था हम तुम अपने पराए सब के सब रुक गए थे.  देश रुक गया था। कितने दिन से प्लानिग कर रहे थे हम, एक महीने पहले ही ले आया था वो pregnancy kit उसी दिन तो पता चला था कि हम अब मां बाप बनने वाले हैं। मैं तुरन्त घर phone कर बताने वाला था जब बीबी ने यह कह रोक दिया कि एक बार श्योर हो लेते हैं, तब बताना, कहीं false positive हुआ तो मज़ाक बन जाएगे। रुक गया, कौन जानता था कि बस कुछ देर और यह देश भी रुकने वाला है। शाम होते ही मोदी जी की  आवाज़ ने अफरा तफरी मचा दी Lockdown इस शब्द से रूबरू हुआ था , मैं भी और अपना देश भी। कौन जानता था कि आने वाले दिन कितने मुश्किल होने वाले हैं। राशन की दुकान पर सैकड़ो लोग खडे थे। बहुत कुछ लाना था, मगर बस 5 Kg चावल ही हाथ लगा। मायूस सा घर लौटा था।        7 दिन हो गए थे, राशन की दुकान कभी खुलती तो कभी बन्द ।  4-5दिन बितते बीतते दुध मिलाने लगा था। सातवें दिन जब दूसरा test भी Positive आया तो घर में बता दिया था कि अब हम दो से तीन हो रहे हैं

बस यूं ही !

1) कभी यहाँ कभी वहाँ, कभी इधर कभी उधर, हवा के झोंकों के साथ, सूखे पत्ते की मानिंद, काटी थी डोर मेरी साँसों की, अपनी दांतों से, किसी ने एक रोज!   2) सिगरेट जला, अपने होठों से लगाया ही था, कि उस पे रेंगती चींटी से बोशा मिला,ज़ुदा हो ज़मीन पर जा गिरी सिगरेट, कहीं तुम भी उस रोज कोई चींटी तो नहीं ले आए थे अपने अधरों पे, जो..........   3) नमी है हवा में, दीवारों में है सीलन, धूप कमरे तक पहुचती नहीं … कितना भी सुखाओ, खमबख्त फंफूंद लग ही जाती है, यादों में!

अंगूर खट्टे हैं-4

लोमडी की आँखें ... या निहार की आँखें....... ... आँखें जो बिन कहे सब कुछ कह जायें....... आँखे जिसने कभी भी निहारिका से झूठ नही बोला........ निहार की ही हो सकती हैं ये आँखें ........... और इन आंखों ने देखते देखते उसे माज़ी (अतीत) के हवाले कर दिया... याद आ गया वो दिन जब वह निहार से मिली थी....... .उस दिन काल सेंटर जाने का मन बिल्कुल ही नही था। मगर जाना ही पडा... सुबह घर पहुचते ही अनिकेत का कॉल ... लडाई... फिर पुरे दिन सो भी नही सकी ... शाम को ओफ्फिस ॥ वही रोज की कहानी .... सर दर्द से फटा जा रहा था ... काम छोड़ .... बहार निकल गई, कॉरिडोर तो पुरा सिगरेट के धुएं से भरा था .. 'पता नही लोग सिगरेट पिने आते हैं या काम करने ' ........... कैंटीन में जा कर बैठ गई.. अपने और अनिकेत के रिश्ते के बारे में सोचने लगी ... न जाने किस की नज़र लग गई थी....वह ग़लत नही थी.. अनिकेत भी ग़लत नही था अगर उसकी माने तो.. फिर ग़लत कौन था...और ग़लत क्या था.. ..अब उन्हें एक दुसरे की उन्ही आदतों से चिड होने लगी थी जिन पर कभी मर मिटते थे.. आज-कल उसे कोई भी वज़ह नही नज़र नही आ रही थी जिसकी वजह से दोनों साथ रहें .. फिर