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जून, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अंगूर खट्टे हैं-4

लोमडी की आँखें ... या निहार की आँखें....... ... आँखें जो बिन कहे सब कुछ कह जायें....... आँखे जिसने कभी भी निहारिका से झूठ नही बोला........ निहार की ही हो सकती हैं ये आँखें ........... और इन आंखों ने देखते देखते उसे माज़ी (अतीत) के हवाले कर दिया... याद आ गया वो दिन जब वह निहार से मिली थी....... .उस दिन काल सेंटर जाने का मन बिल्कुल ही नही था। मगर जाना ही पडा... सुबह घर पहुचते ही अनिकेत का कॉल ... लडाई... फिर पुरे दिन सो भी नही सकी ... शाम को ओफ्फिस ॥ वही रोज की कहानी .... सर दर्द से फटा जा रहा था ... काम छोड़ .... बहार निकल गई, कॉरिडोर तो पुरा सिगरेट के धुएं से भरा था .. 'पता नही लोग सिगरेट पिने आते हैं या काम करने ' ........... कैंटीन में जा कर बैठ गई.. अपने और अनिकेत के रिश्ते के बारे में सोचने लगी ... न जाने किस की नज़र लग गई थी....वह ग़लत नही थी.. अनिकेत भी ग़लत नही था अगर उसकी माने तो.. फिर ग़लत कौन था...और ग़लत क्या था.. ..अब उन्हें एक दुसरे की उन्ही आदतों से चिड होने लगी थी जिन पर कभी मर मिटते थे.. आज-कल उसे कोई भी वज़ह नही नज़र नही आ रही थी जिसकी वजह से दोनों साथ रहें .. फिर

अंगूर खट्टे हैं....3

आँखें ठहर सी गई उस पेंटिंग पर .... पेड़ के नीचे खड़ी लोमड़ी.... अंगूर के गुच्छों को एक टक देखती लोमडी की आँखें ... थोडी अलसाई .. थोडी नशीली ... थोडी नींद से बोझिल आँखें निहार के अलावा किसकी हो सकती थी........ "तो तुम्हे सच में ये लगता है की मुझे तुमसे एक दिन प्यार हो जाएगा?" IIT कैंटीन में बैठे निहारिका ने निहार से पूछा था.. "हाँ" "हा हा हा हा ... तुम जागते हुए सपने देखना कब छोड़ोगे?" "यह हकीकत है " "ओह रिअली ! यू मीन आई विल फाल इन लव विद यू?" " हाँ" " हे हे हे... " निहारिका की हसी रुक ही नही रही थी.. " मजाक तुम से अच्छा कौन करेगा..?" "मजाक नही है यह... प्यार करने लगोगी तुम मुझसे.." "नो वे" "शर्त लगा रहे हो?" "हार जाओगे .." " मुझे हारना नही आता " " तो अब सीख जाओगे" " तुम शर्त लगा रहे हो ?" "अब हारने को कोई मरा जा रहा है तो मुझे क्या! डन!.." " वह तो वक्त ही बताएगा ..." " तुम और तुम्हारा optimism... ! वैसे तुम्हे पता भ

अंगूर खट्टे हैं भाग -२

साफ सफ़ाई का दौर जब एक बार जब ख़त्म हुआ तो घर में अब तक मौजूद मेहमान शादी और रिसेप्शन में मिले गिफ्ट्स के पोस्टमार्टम में लग गए... " भाभी ये क्या मिला है इस पर तो देने वाले ने अपना नाम तक नही लिखा है " "ऐसा क्या मिला है? " निहारिका भौच्चाकी सी रह गई जब उसने देखा उस गिफ्ट को , कुछ और नही बोल पाई ! "किसने दिया होगा?" "ये मैं कैसे कह सकती हूँ" अनमने ढंग से जबाब दे अपने कमरे मे चली गई. "क्या मिला है"... "एक पेंटिंग है .. देने वाले ने अपना नाम भी नही लिखा है........" बाहर के कमरे से आती आवाजों से पीछा नही छुडा पाई वह .... " होगा कोई पागल...." एक आवाज़ फिर गुंजी .. पागल ही तो था वो... ...तो शादी मे आया था ………………..या किसी से भिजवा दी थी इस पेंटिंग को.. वादे का पुरा पक्का निकला.... निहारिका कहीं गुम होने लगी थी यादों के साये मे...... …और.. कब नींद आई क्या पता उसे... जब आंख खुली तो ... पाया पेंटिंग अभी भी एक "hot topic " थी घर में ......जितने मुह उतने कयास ... किसने... क्यो.......????? हर इन्सान करमचंद या ब्योम्केश ब

अंगूर खट्टे हैं ... भाग -१

शिवाजी टर्मिनल पर खड़ी ढेर सारी लो फ्लोर बसों को देख निहारिका १०-१२ साल पहले की दिल्ली को याद करने लगी, वाकई दिल्ली काफी बदल गई थी इन दस सालों में... आज दिल्ली आते ही अनिकेत से बोल पड़ी थी कि बस मे ही घूमेंगे पुरानी यादें ताज़ा हो जाएँगी.. हौज खास जाना था एक लो फ्लोर ६२० नंबर की बस खड़ी देख जा बैठी उसमे , अनिकेत भी पीछे पीछे आ गया. बस खाली थी. वैसे भी दोपहर मे कौन आता होगा? सोचा उसने.. याद आ रहे थे वो दिन जब वो ६२० मे अक्सर जाती थी मुनिरका तक. डीटीसी की खटारा बसो मे या ब्लू लें में ! तब ऐसी बस क्यो नही चलती थी? हूँ.. इक्के दुक्के लोग चढ़ने लगे थे बस मे .. १० मिनट मे ड्राइवर आ गया और धीरे धीरे बस सरकने लगी .. C.P. मे गुज़रे हर पल कितने हसीन थे... और कैसे भूल सकती थी वो C. P. की परिक्रमा ........ उस दिन कितना थक गई थी वो... जंतर मंतर के बस स्टॉप से एक युगल उनके सामने की सीट पर बैठ गया, शायद लवर्स ही होंगे अब दिल्ली को भूल उन्हें देखने लगी .. " वैसे प्यार तो मैं अपने रोहित से ही करती हूँ .... ........ तुम बस मेरे दोस्त ही हो ......समझते क्यो नही हो तुम ? हाँ मुझे तुम्हारी कम्पनी पसंद है

" जब भी यह दिल उदास होता है.............."

जब भी यह दिल............. "जब भी यह दिल उदास होता है ......" सुबह रूचि ने जब जगाया तब FM पर बजता यह गीत मेरे कानो से गुजरा !घड़ी की तरफ़ नज़र फेरी तो ८:२५ हुए थे ! "तुम्हे इंटरव्यू देने नही जाना है क्या ?.... नन्ही रूचि की आवाज़ इस गाने की आवाज में कही गुम हों गई ! कान में सिर्फ़ गुलज़ार के शब्द बस गए थे॥ सच मे गुलज़ार साहब की कलम की अद्भुत करामात है यह! बेड पर पड़े पड़े एक आम हिन्दी फिल्मी हीरो की तरह " FLASH-BACK" में चला गया... कोई भी ऐसा पल याद नही आया जब दिल उदास हो और कोई आस पास न हो...... हाँ मगर ये कहना मुश्किल लगा कि उसके आस पास होने से दिल उदास था या दिल के उदास होने से वो आस पास.... वो होस्टल की छत जब माँ को याद कर रोता था या जब रोता था तब माँ की याद आती थी....... रोज शाम उस सड़क को देखना जो घर की तरफ़ जाती थी... इस इंतिज़ार में कि आज कोई आएगा घर से........ " कोई वादा नही किया लेकिन तेरा इंतिज़ार......." फिर एक-एक कर न जाने कितने ही मंजर आंखों के सामने से गुजरे .....हर उदासी के वक्त कोई ना को कोई जरुर था भले ही जगह और लोगों के चहरे बदल गए हों !