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मई, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

वो (भाग-2)

( मेरे प्यारे से दोस्त गोल्ड फिश को समर्पित ) रात - दिन ताना- बाना बुनती रहती है वो फिर उलझाती है खुद को उन्ही तानों में, मथती रहती न जाने क्या हरदम, गुम हो अपने ही ख्यालों में , बल पड़ते हैं सोच-२ उसके पेशानी पर। समझ न पाई है रिश्तों के भ्रम - जाल को खीजती है कभी , रोती है कभी , कभी गुमसुम , तो कभी हँस लेती है, रिश्तों को निभाने में दिखलाई अपनी नादानी पर । ढका है रूह अनगिनत खरोचों से , जो बयाँ करते है हालत उसके जिस्मो - दिल की । ओढ़ के गुस्सा , रस्मों को लपेट बदन से , दिल के चिथडों को सिलती रहती है । दफ़्न करती है हर साँस को सीने में यूँ मानो एहसान कर रही है जी कर किसी पर । मुस्कुराती है , जब पाती है ख़ुद को ख़ुद के क़रीब , अक्सर ख़ुद से बातें करती रहती है । देखती रहती है खिड़की से बाहर बदहवास दौड़ते उस सड़क को , जहाँ कभी रखा था बड़े सुकून से काँधे पर 'उसके ', अपना सर । अब ऑंखें खड़ी - खड़ी जागती रहती हैं , और आस जगते - जगते सोने लगती है । यूँ उठा है अपनो से भरोसा

वो-१

रिश्तों में आई दूरियों को बालिस्तों से नापने बैठा है वो, अपने गुनाहों को गिन, ढापने बैठा है वो। अपने दायरों से रु-ब-रु होने की ख्वाहिश है उसे, जिन्हें अक्सर वो भूल जाता है, बैठ साँझ को कुरेदता फिरता है और यादों के साये में झूल जाता है। तिनका तिनका जोड़ एक घरौंदा बनता है, फिर उसे तोड़ने लगता है। माले से नोच मोतियों को एक-२ कर बिखेर देता है, उन्हें चुनता और जोड़ने लगता है। पागल है शायद, पागल ही होगा! बीते कल में अगले कल के निशान ढूंढ़ रहा है वो, डर लगता है उजाले से उसे, तो उजाडे में ऑंखें मूंद रहा है वो। अब अपने साये से भी डरने लगा है , अंधेरे का दामन थामे जी रहा है वो। पास आते-२ सब दूर हो जाते हैं उससे, अपने ही आदतों के कड़वे घूँट पी रहा है वो. उसके गुनाहों की फेरहिस्त लम्बी होगी.......... शायद........