(मेरे प्यारे से दोस्त गोल्ड फिश को समर्पित)
रात-दिन ताना-बाना बुनती रहती है वो
फिर उलझाती है खुद को उन्ही तानों में,
मथती रहती न जाने क्या हरदम, गुम हो अपने ही ख्यालों में,
बल पड़ते हैं सोच-२ उसके पेशानी पर।
समझ न पाई है रिश्तों के भ्रम-जाल को
खीजती है कभी, रोती है कभी,
कभी गुमसुम, तो कभी हँस लेती है,
रिश्तों को निभाने में दिखलाई अपनी नादानी पर।
ढका है रूह अनगिनत खरोचों से,
जो बयाँ करते है हालत उसके जिस्मो-दिल की।
ओढ़ के गुस्सा, रस्मों को लपेट बदन से,
दिल के चिथडों को सिलती रहती है।
दफ़्न करती है हर साँस को सीने में यूँ
मानो एहसान कर रही है जी कर किसी पर।
मुस्कुराती है, जब पाती है ख़ुद को ख़ुद के क़रीब,
अक्सर ख़ुद से बातें करती रहती है।
देखती रहती है खिड़की से बाहर बदहवास दौड़ते उस सड़क को,
जहाँ कभी रखा था बड़े सुकून से काँधे पर 'उसके', अपना सर।
अब ऑंखें खड़ी- खड़ी जागती रहती हैं,
और आस जगते-जगते सोने लगती है।
यूँ उठा है अपनो से भरोसा कि
घेर दिया है शर्तो के चक्रव्यूहु में ज़िन्दगी को।
अब, ज़िन्दगी छोटी
जीने की शर्ते बड़ी लगती हैं।
कोई सज़ा-याफ़्ता क़ैदी है वो,
या शायद सज़ा मिली है उसे लड़की होने की.........
टिप्पणियाँ
वैसे कविता अच्छी लगी।
लगे रहो
मुन्ना भाई नहीं कहूंगा।
अनिल जी ये कविताएं पढ़ते हैं या नहीं? बताना।
लिख लेता हूँ जो मन में आता है....
पता नहीं की वो पढ़ते है या नहीं....
शायद नहीं....
मैं कहूंगा उन्हें पढ़ने के लिए।
विभावमेरी कविता का ब्लाग है