शूटिंग नहीं है आज कल खाली ही हूँ। अभी वहीं
कर रहा हूँ जो अमूमन साल के 7-8 महीने करना पड़ता है मुंबई में- ‘काम ढुढ़ने का काम’ । यह काम भी कुछ
कम मज़ेदार नहीं है। सुबह उठे,
एक दो फोन लगाए,
किसिने मिलने को बुला लिया तो ठीक नहीं तो लैपटाप ऑन किया कोई फिल्म चला ली। काम की
तलाश आज खत्म कल फिर फोन घुमाएंगे। एक दूसरा काम और भी है, शूटिंग खत्म होने
के बाद प्रॉडक्शन से पैसे निकलवाने का काम। यह काम थोड़ा मुश्किल है। फोन घूमने के बाद
सोचा कुछ लिखा ही जाए,
बहुत कुछ है लिखने को,
4-5 आधी-अधूरी कहानियाँ,
एक उपन्यास जिसे पिछले 4 सालों से पूरा करना चाहता हूँ, कुछ एक फिल्मों की
स्क्रिप्ट भी हैं तो इंटरवल पर कबसे रुकी पड़ी हैं। पर पिछले काफी दिनों से से कलम के
साथ रोमैन्स में मजा नहीं आ रहा है,
जैसे कोई crisis
है या writer’s block!
मेरे लेखक और अभिनेता मित्र अरुण दादा कहते हैं “मन विरक्त सा हो गया है तेरा! वैसे
जहां प्रेम है वही विरक्ति का वास भी होता है। प्रेम को भूलना आसान नहीं होता है,
अतः घबराने की बात नहीं है,
यह विरक्ति ज्यादा देर नहीं ठहरेगी,
जल्दी ही वापसी होगी प्रेम की” हँसता हूँ और सोचता हूँ, दिमाग में ही तो
है सब कुछ बस कागज़ पर उतरना है,
इतना भी नहीं होता मुझसे,
आलसी होने की हद है यह तो!
वापस
झाँकने लगता हूँ लैपटाप में,
हार्ड ड्राइव में अब ज्यादा फिल्में बची नहीं हैं जो न देखी हों। एक-एक कर हर फोंल्डर को देखता हूँ और आ के अटक जाता
हूँ फिल्मों के उस फोंल्डर पर जिनहे कई बार देख राखी है। Lost in
translation भी उन्ही फिल्मों में से
एक है जिनहे कई बार देख चुका हूँ,
पर जी नहीं भरता है इससे.... Sofia
Coppola की यह फिल्म सिर्फ जापान में उलझे पड़े दो लोगों की
कहानी मात्र नहीं है,
बल्कि यह कहानी है उन आम लोगों की जो जीवन में, रिश्तों को जानने में, भावनाओं और संवेदनाओं
में खोये पड़े हैं। जो जीवन,
रिशों इत्यादि का सही आशय नहीं समझ पाये हैं,
या ठीक-ठीक अनुवाद नहीं कर पाये इसका। फिल्म के नायक और नायिका Bob Harris (Bill
Murray) और
Charlotte
(Scarlett Johansson) अपनी-2 दुनिया में उलझे पड़े हैं, जहां बॉब एक अधेढ़
हालीवूड स्टार शादी के 25 साल बाद “MIDLIFE
Crisis’ से गुजर रहा है, वहीं Charlotte को अपने प्रोटोग्राफर पति के साथ अपना
भविष्य अनिष्टिताओं से भरा नज़र आता है। एकाकी जीवन उन्हे एक अलग परिवेश में करीब ले
आता है। कहने की जरूरत नहीं कि फिल्म खूबसूरत है। फिल्म के अंत में बॉब Charlotte के कान में कुछ कहता है जो दर्शक सुन
नहीं पाते। सही कहूँ तो यह जानने की ख़्वाहिश नहीं मुझे कि क्या कहा होगा बॉब ने...
मेरे लिए यह एक सम्पूर्ण फिल्म है!
फिल्म खत्म हो जाती है और मैं सोचता
रहता हूँ, जनता हूँ, समझता
हूँ, ज़िंदगी ने अब तक जो भी कहा, और कह
रही है उसका सही-2 अनुवाद-translation नहीं कर पाया हूँ, समझ नहीं पाया हूँ अभी तक... रिश्तों को समझने की कोशिश और भी उलझती है, संवेदनाएँ यथार्थ पर भरी नज़र आती हैं, सोच का दायरा
बढ़ ही रहा होता है कि फोन बज उठता है। एक डाइरेक्टर मित्र का फोन है जिसे मेरी कहानियाँ
और स्क्रिप्ट मौलिक एवं वास्तविक तो लगते हैं पर उनमें commercial Value बहुत कम नज़र आती हैं। और नाही उसके ‘टाइप’ की हैं। कुछ फिल्मों के नाम बताया जाता है मुझे
और डाइरेक्टर साहब मुझे इन्हे देख inspiration लेने की सलाह देते
हैं, साथ ही यह हिदायत भी देते हैं कि ध्यान रहे पूरे सीन exactly copied नहीं लगाने चाहिए... वरना copywriter का चक्कर हो जाएगा।
उन्हे ना बोलने का पूरा मन बना लेता हूँ, सर में दर्द हो रहा
है और डाइरेक्टर साहब अभी भी बोल रहे हैं, सिगरेट कि तलब सी होती
है, पर्स उठता हूँ, खाली-2 सा नज़र आता है
पर्स, मुसकुराता हू। उनको ना नाही बोल पता हूँ, आर कहता हूँ, ठीक है एक दो दिन में कोई नया कान्सैप्ट
देता हूँ, आप जरा कुछ एडवांस का इंतेजाम करा दो...... उधर से
2-3 दिन में कुछ करने का आश्वासन मिलता है। फोन रखता हूँ अरुण दादा हस रहे होते है
– कहते हैं... “बोला था ना, ‘ना’ बोलना इतना भी आसान नहीं है। you know beggars are not choosers.”
टिप्पणियाँ
मेरी बहुत सी शुभकामनाएं. डिरेक्टर के पसंद की फिल्में लिखते हुए भी अपना कुछ सहेज पाएं. अपनी किसी पुरानी पोस्ट पर आपका कमेन्ट देखा था. वहीँ आपके ब्लॉग का लिंक भी था. बाकी कुछ तो अभी नहीं पढ़ा है. फिर कभी फुर्सत में लौटूंगी.
बहरहाल. Keep it up and keep it going!
sapano ka ek pahalu yeh bhi hai... :)par jo bhi hai apani chuni raah hai... raas yahin zindagi aati hai.. aur kuchh bhi nahi....