सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

फिंगर प्रिंट्स


रोज भागते भागते उसी झाड़ी तक जा रुक जाता.


पिछली कुछ सर्दियाँ और एक हसीं चेहरा


उन्ही झाड़ियों में कहीं गुम हो कर रह गए थे............






उन झाड़ियों को वो यूँ देखता मानो उसे यकीन था ...


कि गुजारी हुई सर्दियाँ और गुमशुदा सा वो चेहरा


अचानक हीं झाड़ियों से बाहर आ जायेंगे...






उसकी धड़कने जिंदा , ऑंखें खुली थीं..


कदम दर कदम बढ़ता चला जा रहा था...


पर उसका ज़ज्बात सो गया था...






मुर्दा सांसें, कुछ बीते पल औरकुछ सूखे


गुलाबों की माला पिरोये था,


लुटा कर, सब गवां कर आँखों में सपने


संजोये था...






शांत मगर उदासीन मुस्कान,


लिए एक निरीह हंसी, घोले थकान,


उस रोज थाने में रिपोर्ट लिखवाने गया था


आँखों से कोई उसके सपने चुरा ले गया था..






चोर नहीं पकड़ा गया,


पर जाते जाते अपनी पहचान बता गया..


लोग कहते है.. उसकी यादों में,


'तुम्हारे' फिंगर प्रिंट्स मिले हैं.....














टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

चलते -फिरते

१) शाम की लालिमा ओढ़े विशाल व्योम को देखा, रात को जलते बुझते जुगनू से कुछ  सपने, अब आसमान छोटा  और सपने बड़े लगते हैं मुझे!  २)  उसकी आवाज़ वादी में गूंजती रहती है, कहते हैं वो बहुत सुरीला था कभी, पर लोग अब उसे कश्मीर कहते हैं... ३) वो आग जैसी थी, सूरज सी गर्म   उसके एक  इशारे पर हवाएं अपना रुख बदल लेती थी, सुना है कल अपन घर जला बैठी है वो.... ४) बहुत ऊँचा उड़ाती थी वो, आसमान में सुराख़ कर आई, सुना है उस सुराख़ से खून टपकात है उसका....

कुतरे पंख

पंख पसार कर हौसले का विस्तार  तोड़ कर हर बंधन  छूने चली वो विशाल गगन  परों में समेटे दूरियां, आसमान छू आयी वो, कल्पनाओं से परे, अपने हौसले के संग, कतुहलता से भरे लोग उसे देखने को थे लालाइत  सूरज भी देख उसका दुस्साहस था दंग. आसमां में एक सुराख़ सा दिखने लगा था, विजयी मुस्कान लिए अपने घरौंदे में लौट आई. हर तरफ उसके साहस का चर्चा, उसके  हौसले का दंभ.. किसी पुरुष मन को नहीं भाई..  सुबह लहूलुहान सी घोसले के निचे वो पड़ी थी   कुतर दिए गए थे उसके पर, उसे घेरे भीड़  खड़ी थी, उस दहलीज पर यमराज डोली लिए थे खड़े, मायूस था मंजर, खून से नहाये कुतरे पंख वंही थे पड़े. सांसें रुक गयीं थी, जान जिस्म में थी दफ़न, एक विशाल जन समूह जा रहा था अंतिम यात्रा में  ओढ़ाये एक सम्मान का कफ़न. सूरज ने छिपाया अपना मुंह  घनघोर काली बदरिया घिर आई कल तक साहस जहाँ बिखरा पड़ा था वहां मौत ने मातम की चदरिया फैलाई. अग्नि ने सौहार्द पूर्वक उसे अपनी अंचल में लपेट उसके होने का निशां मिटा दिया. आसमां...

किस्तों की वो मौत

उफ़ ... कितनी दफा फोन किया...... कुछ फूल भेजे .... कोई कार्ड भेजा.... नाराज़ जो बैठी थीं .... और हर बार तरह, उस बार भी  तुम्हे मानाने की कोशिश में नाकाम हुआ मैं... तुम्हे मानना मेरे बस बात थी ही कहाँ... जितना मनाओ, तुम उतनी नाराज़.... वैसे नाराज़ तो तुम्हे होना भी चाहिए था... सर्दी जो हो गई थी तुमको, दिसम्बर की उस बारिश में भींग.. माना ही कहाँ था मैं.... खिंच लाया था भीगने को .... घर पहुचने से पहले .. हमारे छींकों की आवाज़ घर पहुंची थी.... दाँत किट-किटाते जब तुम्हे घर छोड़ बहार निकला तो लगा अलविदा कहते ही मेरे अन्दर का कोई हिस्सा मर गया हो... बोला तो तुमने फोन पे लिख भेजा... तुम्हारी मौत तो किस्तों में ही लिखी है मिस्टर... हर रोज ऐसे ही मारूंगी  तुम्हे..... कतरा-२, किस्तों में... हंसा था जोर से किस्तों में मिलने वाली  एक हसीन  मौत को सोच , और फिर कितनी बार कितनी किस्तों में मरा.. मुझे याद ही कहाँ... अब भी याद कर के हँसता हूँ... सालों बाद की अपन...