गहरे ज़ख्मों को तन से लगाये,
हालाती थपेडों से चोट खाए,
कभी धूल-धूसरित, कभी बरखा में नहाये।
हर-दम सुनता हूँ उन्हें, बाते करते, इधर से आते जाते,
गाते गुन-गुनाते, बुद-बुदाते,
अपने वर्तमान पर अफ़सोस जताते।
कई दौरों के गवाह, कई युगों से मूक दर्शक बन,
धूप में तप, समय की बेदी पर छन,
खड़े हैं सर ऊँचा कर आसमां में, नंगे तन।
कुछ किवन्दन्तियाँ , कुछ जग जाहिर, कुछ जानी-अनजानी,
हर एक ईट, हर एक पत्थर सुनाता है एक कहानी,
कही खरोचों,कहीं ख़राशों, कभी खामोशी की जुबानी।
ये ईमारत और इसकी हर दीवार, वक़्त के साथ बदल जाते हैं,
कुछ खड़े हैं, कुछ गिरते हैं, कुछ शाम के साये में ढल जाते हैं,
शालीनता से मुस्कुराते हैं, अपनी यादों में जल जाते हैं।
गवाही देते रहते हैं अपने गौरवशाली अतीत का,
वक्त के के साथ बदल जाने की, प्रकृति के रीत का,
किसी कोने में कैद नफ़रत तो दिल में दफन प्रीत का,
अपनी हार और काल-चक्र के जीत का।
सोचता हूँ , शायद हर गौरवशाली अतीत का वर्तमान खँडहर ही होता होगा!
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