सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

प्रिये, तुम फिर से आ जाना.....



नम रातों में
चांदनी ओढ़े
चेहरे पर गेसू बिखेरे,
टीला, उस नदी के तीरे,
प्रिये, तुम फिर से जाना।

चाँद पर जब बदली छाये,
चांदनी रात स्याह हो जाये,
बरखा जब बूंदें बिखराए
आँखों में लिए नीर, दिल में प्यार उमडाये..
तुम मेरा दरवाजा खटकना,
प्रिये, तुम फिर से जाना।

उदासी जब घिर-२ के आये,
बेताबी में नींद उड़ जाये,
खिड़की खोल, तारों को देख,
मंद-२ मुस्का,खुद से बतियाना,
प्रिये, तुम फिर से जाना।

तन्हाई जब ले अंगड़ाई,
खिले कोई कलि, महके अंगनाई,
सताए तुम्हे जब चंचला पुरवाई,
लिपट तकिये से तुम फिर अलसाना,
प्रिये, तुम फिर से जाना।

खग जब नभ में छेड़े सुर,
खनके जब पैरों में नुपुर,
बिखरे जब साँझ किरण,
छत पे आ फिर से ललचाना,
प्रिये, तुम फिर से जाना।

सर्द हवा जब तन ठिठुराए,
कूके कोयल, रागिनी गाये,
तन-मन की सुध बिसराए,
तुम मेरी आगोश में आना,
प्रिये, तुम फिर से जाना।

पतझड़ में पत्ते मुरझाये,
मन-पावन मलिन हो जाये,
दबे पाँव, बन के बसंत,
मेरी फुलवारी महकाना,
प्रिये, तुम फिर से जाना।

मौसम की पहली बारिश में,
चंचल मन चपल हो जाये,
जब भीगे चितवन ये तेरा,
उलझे बालों को सुलझाना,
प्रिये, तुम फिर से जाना.....
प्रिये, तुम फिर से जाना.....

टिप्पणियाँ

Sunil Kumar ने कहा…
सुंदर अभिव्यक्ति ,शुभकामनायें
दीपक बाबा ने कहा…
प्रिये तुम फिर से आ जाना... बहुत सुंदर कविता...
gauri ने कहा…
gr8888....superlike
gauri ने कहा…
gr8888....superlike
nidhi ने कहा…
gud one :)

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

Calendar

  यूं तो साल दर साल, महीने दर महीने इसे पलट दिया जाता है, मगर कभी- वक्त ठहर सा जाता है, मानो calendar Freez कर दिया गया हो. ऐसा ही कुछ हुआ था हम तुम अपने पराए सब के सब रुक गए थे.  देश रुक गया था। कितने दिन से प्लानिग कर रहे थे हम, एक महीने पहले ही ले आया था वो pregnancy kit उसी दिन तो पता चला था कि हम अब मां बाप बनने वाले हैं। मैं तुरन्त घर phone कर बताने वाला था जब बीबी ने यह कह रोक दिया कि एक बार श्योर हो लेते हैं, तब बताना, कहीं false positive हुआ तो मज़ाक बन जाएगे। रुक गया, कौन जानता था कि बस कुछ देर और यह देश भी रुकने वाला है। शाम होते ही मोदी जी की  आवाज़ ने अफरा तफरी मचा दी Lockdown इस शब्द से रूबरू हुआ था , मैं भी और अपना देश भी। कौन जानता था कि आने वाले दिन कितने मुश्किल होने वाले हैं। राशन की दुकान पर सैकड़ो लोग खडे थे। बहुत कुछ लाना था, मगर बस 5 Kg चावल ही हाथ लगा। मायूस सा घर लौटा था।        7 दिन हो गए थे, राशन की दुकान कभी खुलती तो कभी बन्द ।  4-5दिन बितते बीतते दुध मिलाने लगा था। सातवें दिन जब दूसरा test भी Positive आया तो घर में बता दिया था कि अब हम दो से तीन हो रहे हैं

अंगूर खट्टे हैं-4

लोमडी की आँखें ... या निहार की आँखें....... ... आँखें जो बिन कहे सब कुछ कह जायें....... आँखे जिसने कभी भी निहारिका से झूठ नही बोला........ निहार की ही हो सकती हैं ये आँखें ........... और इन आंखों ने देखते देखते उसे माज़ी (अतीत) के हवाले कर दिया... याद आ गया वो दिन जब वह निहार से मिली थी....... .उस दिन काल सेंटर जाने का मन बिल्कुल ही नही था। मगर जाना ही पडा... सुबह घर पहुचते ही अनिकेत का कॉल ... लडाई... फिर पुरे दिन सो भी नही सकी ... शाम को ओफ्फिस ॥ वही रोज की कहानी .... सर दर्द से फटा जा रहा था ... काम छोड़ .... बहार निकल गई, कॉरिडोर तो पुरा सिगरेट के धुएं से भरा था .. 'पता नही लोग सिगरेट पिने आते हैं या काम करने ' ........... कैंटीन में जा कर बैठ गई.. अपने और अनिकेत के रिश्ते के बारे में सोचने लगी ... न जाने किस की नज़र लग गई थी....वह ग़लत नही थी.. अनिकेत भी ग़लत नही था अगर उसकी माने तो.. फिर ग़लत कौन था...और ग़लत क्या था.. ..अब उन्हें एक दुसरे की उन्ही आदतों से चिड होने लगी थी जिन पर कभी मर मिटते थे.. आज-कल उसे कोई भी वज़ह नही नज़र नही आ रही थी जिसकी वजह से दोनों साथ रहें .. फिर

बस यूं ही !

1) कभी यहाँ कभी वहाँ, कभी इधर कभी उधर, हवा के झोंकों के साथ, सूखे पत्ते की मानिंद, काटी थी डोर मेरी साँसों की, अपनी दांतों से, किसी ने एक रोज!   2) सिगरेट जला, अपने होठों से लगाया ही था, कि उस पे रेंगती चींटी से बोशा मिला,ज़ुदा हो ज़मीन पर जा गिरी सिगरेट, कहीं तुम भी उस रोज कोई चींटी तो नहीं ले आए थे अपने अधरों पे, जो..........   3) नमी है हवा में, दीवारों में है सीलन, धूप कमरे तक पहुचती नहीं … कितना भी सुखाओ, खमबख्त फंफूंद लग ही जाती है, यादों में!