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अंगूर खट्टे हैं ... भाग -१

शिवाजी टर्मिनल पर खड़ी ढेर सारी लो फ्लोर बसों को देख निहारिका १०-१२ साल पहले की दिल्ली को याद करने लगी, वाकई दिल्ली काफी बदल गई थी इन दस सालों में... आज दिल्ली आते ही अनिकेत से बोल पड़ी थी कि बस मे ही घूमेंगे पुरानी यादें ताज़ा हो जाएँगी.. हौज खास जाना था एक लो फ्लोर ६२० नंबर की बस खड़ी देख जा बैठी उसमे , अनिकेत भी पीछे पीछे आ गया. बस खाली थी. वैसे भी दोपहर मे कौन आता होगा? सोचा उसने.. याद आ रहे थे वो दिन जब वो ६२० मे अक्सर जाती थी मुनिरका तक. डीटीसी की खटारा बसो मे या ब्लू लें में ! तब ऐसी बस क्यो नही चलती थी? हूँ.. इक्के दुक्के लोग चढ़ने लगे थे बस मे .. १० मिनट मे ड्राइवर आ गया और धीरे धीरे बस सरकने लगी .. C.P. मे गुज़रे हर पल कितने हसीन थे... और कैसे भूल सकती थी वो C. P. की परिक्रमा ........ उस दिन कितना थक गई थी वो... जंतर मंतर के बस स्टॉप से एक युगल उनके सामने की सीट पर बैठ गया, शायद लवर्स ही होंगे अब दिल्ली को भूल उन्हें देखने लगी .. " वैसे प्यार तो मैं अपने रोहित से ही करती हूँ .... ........ तुम बस मेरे दोस्त ही हो ......समझते क्यो नही हो तुम ? हाँ मुझे तुम्हारी कम्पनी पसंद है, तुम से बातें करना अच्छा लगता है मगर मैंने तुम्हे सिर्फ़ एक दोस्त की तरह ही देखा है............. और ........." इससे आगे उस लड़की ने क्या कहा सुन नही सकी, ऐसा लगा बहरी हो गई है, उसने भी तो ऐसे ही कहा था कभी... किसी से ... कही .किसी रोज ऐसे ही एक बस मी..... अनिकेत अब भी एकोन्मिक टाईम्स मे खोया था, उसके कंधे से सर टिका बाहर देखने लगी.. युवक और युवती की बातें सुनाने की कोशिश करने लगी मगर ... दिल राजी नही था उसके लिए... अतीत दस्तक देने लगा .. आँखें मूंद ली , हाथों ने उनसे बह आए आँसुओ को पोछ दिया..... वर्तमान धुंधला गया ........

"हे भगवान कोई सहूर भी इस लड़की को २० साल की होने को आई है मगर.......... , जंहा देखों वही समान बिखरा पड़ा है . स्वाती इस घर को साफ करो, और अलमारी से सारे गिफ्ट्स निकालो देखते है क्या मिला है .... इस शादी मे !" पल्लू से माथे पर उग आए पसीने की बूंदों को हटाते हुए चंद्रा सोफे पर जा बैठी. " भाभी ये माँ भी न कभी कहीं भी चैन से बैठने नही देती. आती हूँ, घंटे भर की छुट्टी समझो अब ! तब तक आ आराम फरमा लें !"

टिप्पणियाँ

santosh sengar ने कहा…
jeevan me yade bahut kuch baya kar deti hai,ye yaade aadmi ke har umra me ek alag ehsas baya karti hai.yade aur samay apni gati se chalte hai,samay ko badlte dekhna, bhi ek algag anubhaw hai, kyo ki jeevan me thahrav bhi aate hai,shyad ye kahani bhi samay ke pariwartan ko baya karti hai.

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  यूं तो साल दर साल, महीने दर महीने इसे पलट दिया जाता है, मगर कभी- वक्त ठहर सा जाता है, मानो calendar Freez कर दिया गया हो. ऐसा ही कुछ हुआ था हम तुम अपने पराए सब के सब रुक गए थे.  देश रुक गया था। कितने दिन से प्लानिग कर रहे थे हम, एक महीने पहले ही ले आया था वो pregnancy kit उसी दिन तो पता चला था कि हम अब मां बाप बनने वाले हैं। मैं तुरन्त घर phone कर बताने वाला था जब बीबी ने यह कह रोक दिया कि एक बार श्योर हो लेते हैं, तब बताना, कहीं false positive हुआ तो मज़ाक बन जाएगे। रुक गया, कौन जानता था कि बस कुछ देर और यह देश भी रुकने वाला है। शाम होते ही मोदी जी की  आवाज़ ने अफरा तफरी मचा दी Lockdown इस शब्द से रूबरू हुआ था , मैं भी और अपना देश भी। कौन जानता था कि आने वाले दिन कितने मुश्किल होने वाले हैं। राशन की दुकान पर सैकड़ो लोग खडे थे। बहुत कुछ लाना था, मगर बस 5 Kg चावल ही हाथ लगा। मायूस सा घर लौटा था।        7 दिन हो गए थे, राशन की दुकान कभी खुलती तो कभी बन्द ।  4-5दिन बितते बीतते दुध मिलाने लगा था। सातवें दिन जब दूसरा test भी Positive आया तो घर में बता दिया था कि अब हम दो से तीन हो रहे हैं

बस यूं ही !

1) कभी यहाँ कभी वहाँ, कभी इधर कभी उधर, हवा के झोंकों के साथ, सूखे पत्ते की मानिंद, काटी थी डोर मेरी साँसों की, अपनी दांतों से, किसी ने एक रोज!   2) सिगरेट जला, अपने होठों से लगाया ही था, कि उस पे रेंगती चींटी से बोशा मिला,ज़ुदा हो ज़मीन पर जा गिरी सिगरेट, कहीं तुम भी उस रोज कोई चींटी तो नहीं ले आए थे अपने अधरों पे, जो..........   3) नमी है हवा में, दीवारों में है सीलन, धूप कमरे तक पहुचती नहीं … कितना भी सुखाओ, खमबख्त फंफूंद लग ही जाती है, यादों में!

अंगूर खट्टे हैं-4

लोमडी की आँखें ... या निहार की आँखें....... ... आँखें जो बिन कहे सब कुछ कह जायें....... आँखे जिसने कभी भी निहारिका से झूठ नही बोला........ निहार की ही हो सकती हैं ये आँखें ........... और इन आंखों ने देखते देखते उसे माज़ी (अतीत) के हवाले कर दिया... याद आ गया वो दिन जब वह निहार से मिली थी....... .उस दिन काल सेंटर जाने का मन बिल्कुल ही नही था। मगर जाना ही पडा... सुबह घर पहुचते ही अनिकेत का कॉल ... लडाई... फिर पुरे दिन सो भी नही सकी ... शाम को ओफ्फिस ॥ वही रोज की कहानी .... सर दर्द से फटा जा रहा था ... काम छोड़ .... बहार निकल गई, कॉरिडोर तो पुरा सिगरेट के धुएं से भरा था .. 'पता नही लोग सिगरेट पिने आते हैं या काम करने ' ........... कैंटीन में जा कर बैठ गई.. अपने और अनिकेत के रिश्ते के बारे में सोचने लगी ... न जाने किस की नज़र लग गई थी....वह ग़लत नही थी.. अनिकेत भी ग़लत नही था अगर उसकी माने तो.. फिर ग़लत कौन था...और ग़लत क्या था.. ..अब उन्हें एक दुसरे की उन्ही आदतों से चिड होने लगी थी जिन पर कभी मर मिटते थे.. आज-कल उसे कोई भी वज़ह नही नज़र नही आ रही थी जिसकी वजह से दोनों साथ रहें .. फिर