सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

" जब भी यह दिल उदास होता है.............."


जब भी यह दिल.............

"जब भी यह दिल उदास होता है ......" सुबह रूचि ने जब जगाया तब FM पर बजता यह गीत मेरे कानो से गुजरा !घड़ी की तरफ़ नज़र फेरी तो ८:२५ हुए थे !
"तुम्हे इंटरव्यू देने नही जाना है क्या ?.... नन्ही रूचि की आवाज़ इस गाने की आवाज में कही गुम हों गई ! कान में सिर्फ़ गुलज़ार के शब्द बस गए थे॥
सच मे गुलज़ार साहब की कलम की अद्भुत करामात है यह!
बेड पर पड़े पड़े एक आम हिन्दी फिल्मी हीरो की तरह " FLASH-BACK" में चला गया...
कोई भी ऐसा पल याद नही आया जब दिल उदास हो और कोई आस पास न हो...... हाँ मगर ये कहना मुश्किल लगा कि उसके आस पास होने से दिल उदास था या दिल के उदास होने से वो आस पास....
वो होस्टल की छत जब माँ को याद कर रोता था या जब रोता था तब माँ की याद आती थी.......
रोज शाम उस सड़क को देखना जो घर की तरफ़ जाती थी... इस इंतिज़ार में कि आज कोई आएगा घर से........
" कोई वादा नही किया लेकिन तेरा इंतिज़ार......."
फिर एक-एक कर न जाने कितने ही मंजर आंखों के सामने से गुजरे .....हर उदासी के वक्त कोई ना को कोई जरुर था भले ही जगह और लोगों के चहरे बदल गए हों !
टहलता हुआ बालकनी मे आया तो कंचे खेलते बच्चो को देख वो अपने कंच्चे याद आए जिन्हें चाचा के डर से आँगन के अमरुद के पेड़ के नीचे छुपा दिया था ........... शायद आज भी वही पड़े मेरा इंतिज़ार कर रहे होंगे....
मोबाइल बज उठा , अलार्म था ९ बजे का ! तौलिये को कंधे पर रख बाथरूम की ओर चल पडा ! आज फिर एक और इंटरव्यू है .... जो भी हो वहाँ मगर दिन तो अच्छा गुजरेगा ही....
यादें हमेशा उदास नही छोड़ जाती और छोड़ भी दे तो क्या "जब भी ये दिल उदास उदास होता है जाने कौन आस पास होता है! "

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

चलते -फिरते

१) शाम की लालिमा ओढ़े विशाल व्योम को देखा, रात को जलते बुझते जुगनू से कुछ  सपने, अब आसमान छोटा  और सपने बड़े लगते हैं मुझे!  २)  उसकी आवाज़ वादी में गूंजती रहती है, कहते हैं वो बहुत सुरीला था कभी, पर लोग अब उसे कश्मीर कहते हैं... ३) वो आग जैसी थी, सूरज सी गर्म   उसके एक  इशारे पर हवाएं अपना रुख बदल लेती थी, सुना है कल अपन घर जला बैठी है वो.... ४) बहुत ऊँचा उड़ाती थी वो, आसमान में सुराख़ कर आई, सुना है उस सुराख़ से खून टपकात है उसका....

कुतरे पंख

पंख पसार कर हौसले का विस्तार  तोड़ कर हर बंधन  छूने चली वो विशाल गगन  परों में समेटे दूरियां, आसमान छू आयी वो, कल्पनाओं से परे, अपने हौसले के संग, कतुहलता से भरे लोग उसे देखने को थे लालाइत  सूरज भी देख उसका दुस्साहस था दंग. आसमां में एक सुराख़ सा दिखने लगा था, विजयी मुस्कान लिए अपने घरौंदे में लौट आई. हर तरफ उसके साहस का चर्चा, उसके  हौसले का दंभ.. किसी पुरुष मन को नहीं भाई..  सुबह लहूलुहान सी घोसले के निचे वो पड़ी थी   कुतर दिए गए थे उसके पर, उसे घेरे भीड़  खड़ी थी, उस दहलीज पर यमराज डोली लिए थे खड़े, मायूस था मंजर, खून से नहाये कुतरे पंख वंही थे पड़े. सांसें रुक गयीं थी, जान जिस्म में थी दफ़न, एक विशाल जन समूह जा रहा था अंतिम यात्रा में  ओढ़ाये एक सम्मान का कफ़न. सूरज ने छिपाया अपना मुंह  घनघोर काली बदरिया घिर आई कल तक साहस जहाँ बिखरा पड़ा था वहां मौत ने मातम की चदरिया फैलाई. अग्नि ने सौहार्द पूर्वक उसे अपनी अंचल में लपेट उसके होने का निशां मिटा दिया. आसमां...

किस्तों की वो मौत

उफ़ ... कितनी दफा फोन किया...... कुछ फूल भेजे .... कोई कार्ड भेजा.... नाराज़ जो बैठी थीं .... और हर बार तरह, उस बार भी  तुम्हे मानाने की कोशिश में नाकाम हुआ मैं... तुम्हे मानना मेरे बस बात थी ही कहाँ... जितना मनाओ, तुम उतनी नाराज़.... वैसे नाराज़ तो तुम्हे होना भी चाहिए था... सर्दी जो हो गई थी तुमको, दिसम्बर की उस बारिश में भींग.. माना ही कहाँ था मैं.... खिंच लाया था भीगने को .... घर पहुचने से पहले .. हमारे छींकों की आवाज़ घर पहुंची थी.... दाँत किट-किटाते जब तुम्हे घर छोड़ बहार निकला तो लगा अलविदा कहते ही मेरे अन्दर का कोई हिस्सा मर गया हो... बोला तो तुमने फोन पे लिख भेजा... तुम्हारी मौत तो किस्तों में ही लिखी है मिस्टर... हर रोज ऐसे ही मारूंगी  तुम्हे..... कतरा-२, किस्तों में... हंसा था जोर से किस्तों में मिलने वाली  एक हसीन  मौत को सोच , और फिर कितनी बार कितनी किस्तों में मरा.. मुझे याद ही कहाँ... अब भी याद कर के हँसता हूँ... सालों बाद की अपन...