पंख पसार
कर हौसले का विस्तार
तोड़ कर हर बंधन
छूने चली वो विशाल गगन
परों में समेटे दूरियां, आसमान छू आयी वो,
कल्पनाओं से परे, अपने हौसले के संग,
कतुहलता से भरे लोग उसे देखने को थे लालाइत
सूरज भी देख उसका दुस्साहस था दंग.
आसमां में एक सुराख़ सा दिखने लगा था,
विजयी मुस्कान लिए अपने घरौंदे में लौट आई.
हर तरफ उसके साहस का चर्चा, उसके
हौसले का दंभ.. किसी पुरुष मन को नहीं भाई..
सुबह लहूलुहान सी घोसले के निचे वो पड़ी थी
कुतर दिए गए थे उसके पर, उसे घेरे भीड़ खड़ी थी,
उस दहलीज पर यमराज डोली लिए थे खड़े,
मायूस था मंजर, खून से नहाये कुतरे पंख वंही थे पड़े.
सांसें रुक गयीं थी,
जान जिस्म में थी दफ़न,
एक विशाल जन समूह जा रहा था अंतिम यात्रा में
ओढ़ाये एक सम्मान का कफ़न.
सूरज ने छिपाया अपना मुंह
घनघोर काली बदरिया घिर आई
कल तक साहस जहाँ बिखरा पड़ा था
वहां मौत ने मातम की चदरिया फैलाई.
अग्नि ने सौहार्द पूर्वक उसे अपनी अंचल में लपेट
उसके होने का निशां मिटा दिया.
आसमां के उस सुराख़ से खून टपक रहा था
इन सब से बेखबर, एक उत्साही कुतरा पंख
फिर से आसमां छूने को बेकरार
अभी भी फुदक रहा था.............
टिप्पणियाँ
आसमां में एक सुराख़ सा दिखने लगा था
दिल की गहराई से लिखी गयी एक सुंदर रचना , बधाई
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/