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अरमानों की चिता

वहां के लोग त्रिशंकु हैं,
या वो जगह ????
नहीं जानता कोई.....
हर पल कहीं न कहीं
सुलगता रहता है 
पल पल जिंदगानियां बदलती हैं,
शहर ये हर पल जीता और मरता रहता है .
कहते हैं कभी बर्फ में खो जाती थी 
चमक सूरज की  
धुंध में देवता रमते थे जहाँ 
अब धुआं-२ सी आबोहवा है इसकी,
भटकते रहते हैं बंदूकधारी दानव यहाँ...
सोचता हूँ यूँही 
तेरे बारे में ये 'काशीर'
तेरी वो थाती ... तेरा गौरव
चिनाब और वो झेलम का तीर!
देखता हूँ तेरा दामन और रोता हूँ, 
इस पर हर जगह दाग सा बना क्यों है ?
कभी पाक, कभी नापाक 
हर हाँथ तेरा खून से सना क्यों है ?
न जाने कितने वादे तुझको भरमाते हैं 
ज़न्नत कहते हैं लोग तुझको,सही तो कहते हैं,
तू ज़न्नत ही होगा तभी तो 
जिंदा लोग तेरे दर से कतराते हैं....
तेरी हवा में खून की बू सी आती है 
थुथने भर जाते हैं
जान हलक में अटकने लगाती है 
और मौत कभी भी छू सी जाती है..
धूं धूं कर जलती है तेरे अरमानो की चिता
ज़िन्दगी सहमी-२ सी है और मौत की हर वक़्त शान है
हैवानियत हर वक़्त इतराती है 
तेरा लिहाफ वर्षों से लहूलुहान है.
शायद तू मुर्दों की एक बस्ती है 
या कहूं की एक जिंदा शमशान है ...   

टिप्पणियाँ

बहुत संवेदनशील रचना ....
तू ज़न्नत ही होगा तभी तो
जिंदा लोग तेरे दर से कतराते हैं.

सच कहा...सुंदर वर्णन किया वहाँ के हालातों का.

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बस यूं ही !

1) कभी यहाँ कभी वहाँ, कभी इधर कभी उधर, हवा के झोंकों के साथ, सूखे पत्ते की मानिंद, काटी थी डोर मेरी साँसों की, अपनी दांतों से, किसी ने एक रोज!   2) सिगरेट जला, अपने होठों से लगाया ही था, कि उस पे रेंगती चींटी से बोशा मिला,ज़ुदा हो ज़मीन पर जा गिरी सिगरेट, कहीं तुम भी उस रोज कोई चींटी तो नहीं ले आए थे अपने अधरों पे, जो..........   3) नमी है हवा में, दीवारों में है सीलन, धूप कमरे तक पहुचती नहीं … कितना भी सुखाओ, खमबख्त फंफूंद लग ही जाती है, यादों में!