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उजाले की आस



उस झोपड़ी के आगे 
दिया रोज टिमटिमाता है,
सूरज के बुझते ही वो बूढ़ा
रोज चिराग जलाता है.

अँधेरा घना है सूरज रास्ता भटक जायेगा
कहता है और मुस्कुराता है.
दिया जला हर मौसम में 
दिवाकर को अपने घर का पता बताता है.

कह कर गयी थी वो उससे की वो चाँद है
सूर्य किरणों से ही जलती है
रौशनी में ऑंखें चौधियाती हैं 
इसलिए छिप कर अँधेरे में निकलती है.

तबसे किसी ने उसे थकते नहीं देखा 
कहते हैं उसके घर उम्मीदे बरसती हैं.
उजाले की आस में जीता है हर रोज
अँधेरे की सांसे उसकी देहरी लांघने को तरसती हैं.

उजाले का पुजारी जो ठहरा
सूरज से लाली चुरा चाँद को चमकता है
गुम न हो जाये अँधेरे में सूरज कहीं इसलिए
दिया जला भोर तलक सूरज को रास्ता दिखलाता है.

तन से बूढ़ा है, पर मन से जवान,
रुकन,थकन जैसे अहसासों से बिलकुल अंजान,.
तिमिर नहीं आता कभी उस घर के आस-पास
लाखो जुगनू बसते हैं उस घर में
बस्ती है वही उजाले की आस......

कहते हैं न जहाँ रौशनी होती है वहां कभी अँधेरा नहीं होता.....

टिप्पणियाँ

बहुत सुन्दर भाव ...पढ़ना अच्छा लगा ..
आप की रचना 10 सितम्बर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
http://charchamanch.blogspot.com


आभार

अनामिका
vandana gupta ने कहा…
गज़ब के भाव भरे हैं………………बेहद भावभीनी रचना………………उजाले की आस हो तो उजाला कैसे न होगा।
शोभा ने कहा…
भाव भीनी प्रस्तुति के लिए आभार।
रंजना ने कहा…
सुन्दर बिम्ब प्रयोग...भावपूर्ण रचना...

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न थकन, न चुभन न शोक, न आह्लाद, बस चिंतन-मनन कर रहा हूँ. न विघटन, न विखंडन, न प्रतिकार,न चित्कार, बस भावनाओं का दमन कर रहा हूँ. न शिशिर,न बसंत, न शीत. न हेमंत, बस नम आँखों से नमन कर रहा हूँ. न संशय, न विस्मय न चिंगारी, न अंगारे बस दिवा-स्वप्नों का दहन कर रहा हूँ. न आग, न धुँआ न कथ, न अकथ बस मन के उन्मादों का हवन कर रहा हूँ.