उफ़ ... कितनी दफा फोन किया......
कुछ फूल भेजे ....
कोई कार्ड भेजा....
नाराज़ जो बैठी थीं ....
और हर बार तरह, उस बार भी
तुम्हे मानाने की कोशिश में नाकाम हुआ मैं...
तुम्हे मानाने की कोशिश में नाकाम हुआ मैं...
तुम्हे मानना मेरे बस बात थी ही कहाँ...
जितना मनाओ, तुम उतनी नाराज़....
वैसे नाराज़ तो तुम्हे होना भी चाहिए था...
सर्दी जो हो गई थी तुमको,
दिसम्बर की उस बारिश में भींग..
माना ही कहाँ था मैं....
खिंच लाया था भीगने को ....
घर पहुचने से पहले ..
हमारे छींकों की आवाज़ घर पहुंची थी....
दाँत किट-किटाते जब तुम्हे घर छोड़ बहार निकला
तो लगा अलविदा कहते ही मेरे अन्दर का कोई हिस्सा
मर गया हो...
बोला तो तुमने फोन पे लिख भेजा...
तुम्हारी मौत तो किस्तों में ही लिखी है मिस्टर...
हर रोज ऐसे ही मारूंगी तुम्हे.....
कतरा-२, किस्तों में...
हंसा था जोर से किस्तों में मिलने वाली
एक हसीन मौत को सोच ,
और फिर कितनी बार कितनी किस्तों में मरा..
मुझे याद ही कहाँ...
अब भी याद कर के हँसता हूँ...
सालों बाद की अपनी किस्तों की ज़िन्दगी देख....
किस्तों-२ में मरना....
किस्तों में जीने से.. कितना भला था.....
टिप्पणियाँ
thanks 'nk'.
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
और किश्तों में मरना................
बहुत बढ़िया...
अनु