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चेहरे



वो आइना अपना सा लगता था मुझे,
आखिर उसी में तो एक चेहरा दिखता था
जो जनता था मुझे,
पहचानता था मुझे...
एक रोज हवा का एक झोका 
उसकी बुनियाद हिला गया,
उसके अस्तित्व, उसके 
अरमानो को मिटा गया.
कराहता मिला था फर्श पर मुझे,
उठाया, देखा, और पाया,
कितना झूठा था मेरा आइना
ता-उम्र मुझे एक झूठा चेहरा दिखाता रहा,
मेरी वास्तविकता मुझसे ही छुपाता रहा,
उसके को सच मन मैं बरसों इतराता रहा..
पर जाते-२ वो मुझे मेरी हकीक़त बता गया,
मुझे मेरे अनगिनत चेहरा दिखा गया,
चेहरे पर पहने थे कई चेहरे मैंने
वो सब  से रु-ब-रु करा गया...
वो टूट गया,
अपना सा लगाने वाला 
वो चेहरा मुझसे रूठ गया..
फिर आइने का सामना कम ही कर पता था,
दिखाता था जिधर उधर जाने से कतराता था,
खुद से नज़ारे मिलाने में ये शर्म कैसी?
और क्यों?
क्या मैंने गुनाह किया है?
क्या मैंने सिर्फ झूठ को जिया है?
नहीं,, तो फिर दर्पण से ये डर कैसा?
सोच यह, कर हौसला बरसों बाद.
आँखों के सामने से गुजरे 
अपने ही चेहरे को कर के याद..
आज आइने से टकरा गया
अपने नए नवेले अनोखे चेहरे 
को देख घबरा गया..
खुछ खो सा गया था चेहरे से मेरे
अपने ही चेहरे में एक कमी सी दिखी
आँखों में हताश से खुछ सपने थे,पर थी
 लबों पर एक मुस्कान की रेखा खिची 
अपनी ही मुस्कराहट इतनी अजनबी  कैसे?
सालों से हूँ अनजान अपनी ही हसी से जैसे...
दिमाग की पहचान तो मुखौटो से बहुत पुरानी है,
मगर दिल के लिए ये तस्वीरे अब तक अनजानी हैं,
माँ के सामने का एक चेहरा
लोगों को दिखाने का चेहरा
एक सुबह का
एक शाम का
कभी तन्हाई वाला 
कभी रुसवाई वाला 
और न जाने कितने चेहरे हैं मेरे
भूल सा गया हूँ अपनी पुरानी छवि को
इन सभी चेहरों में असली कौन नकली कौन?
मैं नहीं जनता...
मेरा दिल इन चेहरों में से किसी भी चेहरे को
अपना नहीं मानता है...

टिप्पणियाँ

अच्छा सवाल किया है आपने खुद से. बल्कि हम सब भी शायद ऐसा ही सवाल खुद से किया करते है. पता नहीं सही जवाब का बस अब इंतज़ार ही किया जा सकता है. आप भी एक दिन अपने को ढूंढ ही लेंगे.
Rahul Ranjan Rai ने कहा…
@ Vandana, koshish jari hai.... jabab jitani jaldi milenge utana hi achha hoga.. :P
rajeev matwala ने कहा…
chehre kavye ki dristi se prabhavpoor rachna hai....bdhai...

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बस यूं ही !

1) कभी यहाँ कभी वहाँ, कभी इधर कभी उधर, हवा के झोंकों के साथ, सूखे पत्ते की मानिंद, काटी थी डोर मेरी साँसों की, अपनी दांतों से, किसी ने एक रोज!   2) सिगरेट जला, अपने होठों से लगाया ही था, कि उस पे रेंगती चींटी से बोशा मिला,ज़ुदा हो ज़मीन पर जा गिरी सिगरेट, कहीं तुम भी उस रोज कोई चींटी तो नहीं ले आए थे अपने अधरों पे, जो..........   3) नमी है हवा में, दीवारों में है सीलन, धूप कमरे तक पहुचती नहीं … कितना भी सुखाओ, खमबख्त फंफूंद लग ही जाती है, यादों में!