सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

साल का आखिर सच...

स्याह रात ने अपने पर फैला दिए थे .... साये गहरे होते जा रहे थे.... वो तड़प रहा था... सितारों ने बेड़ियों से जकड़ लिया था उसे....... आवारा उल्कायों ने पहले उसे दोस्ती के जाल  में फसाया और फिर जाते जाते उसे दाग दे कर चली गयीं ... अनगिनत दाग...उसके चहरे पर वो धब्बे साफ साफ नज़र आ रहे थे.... आवारा उल्काओं से उसकी दोस्ती धरती को पसंद नहीं आई थी शायद ... अब धरती की परछाई 'चाँद' को निगल रही थी... उसका अस्तित्व ख़त्म हो रहा था.... चांदनी का भी दम घुटा सा जा रहा होगा ... तभी तो उसकी रंगत पिली पड़ती जा रही थी.. चाँद की हमदर्द चांदनी ने भी शायद उससे दूर जाने का फैसला कर लिया था.... निसहाय सा चाँद उसे बस जाते हुए देख रहा था.... वो अपना हाँथ बढ़ा चांदनी की कलाई थाम लेना चाहता था..... पर उसके हाँथ तो उठे ही नहीं.... गुनाहों के बोझ तले दबे जो थे.... और बेरहम चांदनी? उसने तो पलट कर देखना भी गवारा न समझा...... चाँद की आँखे भर आई... उसकी आँखों से खून टपक रहा था...टप- टप... टप.. कर खून का हर एक कतरा मेरे लिहाफ को भिगोता रहा.... छत पर खड़ा मैं चाँद की इस दुर्गति का मूक दर्शक भर था..... चाँद की लौ फडफडा रही थी... शायद बुझने से पहले उसकी  आखिरी कोशिश होगी ... दम घुटने सा लगा .. हांफने की आवाज़ कानों में गूंज रही थी.. माथे पर हाथ फेरा तो हाथ चिपक कर रह गया.....चीखना चाहता था पर गले आवाज़ नहीं निकल रही थी....
हाँथ बढ़ा चांदनी को पकड़ लेना चाहता था.. बतलाना चाहता था , चाँद के लिए उसके मायने.... पर मेरे भी हाथ आगे नहीं बढ़ रहे थे.. वो तो हिलने तक को तैयार न थे.... मेरा हल भी चाँद जैसा ही था कुछ...एक झटके से मेरी ऑंखें खुल गयीं.. घबरा कर चारो तरफ देखा तो पाया अँधेरा ही अँधेरा था... दौड़ते हुए बालकनी में पहुंचा..... चाँद एक झुरमुट के पीछे छुपा मुस्कुरा रहा था... सपना देखा था मैंने.. अपने होश संभालते ही मैंने राहत की साँस ली.. 
मैं चाँद की आँखों में आँखें डाली.. उसने मेरी आँखों में झाँका... मैं मुस्कुराया और वो हंसा.... बोला मुझसे चाँद मेरा... पगले जलना बुझाना तो मेरी नियति है.... इससे डर कैसा....न धरती मुझे बुझा-बुझा कर थकती है और न मैं जलते जलते.... अँधेरे में तो सूरज भी रास्ता भटक जाता है.. मैं तो चाँद हूँ.. मेरे पास अपनी रोशनी कहाँ...? ना जाने कौन किसकी बेबसी पर हस रहा था, पर दोनों के चहरे पर एक मुस्कराहट जरुर थी ....और दोनों ही के आँखों में नींद का कोई अता-पता नहीं था..
नज़रें घुमाई तो देखा 'भोर का तारा' हम दोनों को देख मुस्कुरा रहा था.... अरे शाम ही को तो उसने संध्या के आगमन की सूचना दी थी और अब ? रैना की विदाई की तयारी में है? वक़्त कितनी जल्दी बदल जाता है न.... 
एक बार फिर चाँद को देखा... चाँद मुस्कुराया और बोला... तुझे क्या पता कब तेरी ज़िन्दगी में संध्या का कोई सितारा, भोर का तारा बन बैठे....मैं मुस्कुराया... टिक टिक की आवजा मुझे कमरे में बुला रही थी..  कमरे में आ, घडी की आँखों में झाँका तो पाया कि पांच बजने को हैं......आज इस साल का आखिरी दिन है... सोच ही रहा था कि एक ख्याल आया... आखिर 'new year resolution ' भी तो चीज है.... सोचंते लगा.... चाँद अब भी खिसकी से झांक रहा था.. उसे देखा और मैं मुस्कुराया ... मुझे एक नया new year resolution जो मिल गया था.... 
अबकी बार मुझे चाँद बनाना है..... कोई लाख बुझा बुझा के थक जाये ... मेरी लौ जलनी चाहिए... चाँद की  तरह..... हमेशा..... 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

चलते -फिरते

१) शाम की लालिमा ओढ़े विशाल व्योम को देखा, रात को जलते बुझते जुगनू से कुछ  सपने, अब आसमान छोटा  और सपने बड़े लगते हैं मुझे!  २)  उसकी आवाज़ वादी में गूंजती रहती है, कहते हैं वो बहुत सुरीला था कभी, पर लोग अब उसे कश्मीर कहते हैं... ३) वो आग जैसी थी, सूरज सी गर्म   उसके एक  इशारे पर हवाएं अपना रुख बदल लेती थी, सुना है कल अपन घर जला बैठी है वो.... ४) बहुत ऊँचा उड़ाती थी वो, आसमान में सुराख़ कर आई, सुना है उस सुराख़ से खून टपकात है उसका....

कुतरे पंख

पंख पसार कर हौसले का विस्तार  तोड़ कर हर बंधन  छूने चली वो विशाल गगन  परों में समेटे दूरियां, आसमान छू आयी वो, कल्पनाओं से परे, अपने हौसले के संग, कतुहलता से भरे लोग उसे देखने को थे लालाइत  सूरज भी देख उसका दुस्साहस था दंग. आसमां में एक सुराख़ सा दिखने लगा था, विजयी मुस्कान लिए अपने घरौंदे में लौट आई. हर तरफ उसके साहस का चर्चा, उसके  हौसले का दंभ.. किसी पुरुष मन को नहीं भाई..  सुबह लहूलुहान सी घोसले के निचे वो पड़ी थी   कुतर दिए गए थे उसके पर, उसे घेरे भीड़  खड़ी थी, उस दहलीज पर यमराज डोली लिए थे खड़े, मायूस था मंजर, खून से नहाये कुतरे पंख वंही थे पड़े. सांसें रुक गयीं थी, जान जिस्म में थी दफ़न, एक विशाल जन समूह जा रहा था अंतिम यात्रा में  ओढ़ाये एक सम्मान का कफ़न. सूरज ने छिपाया अपना मुंह  घनघोर काली बदरिया घिर आई कल तक साहस जहाँ बिखरा पड़ा था वहां मौत ने मातम की चदरिया फैलाई. अग्नि ने सौहार्द पूर्वक उसे अपनी अंचल में लपेट उसके होने का निशां मिटा दिया. आसमां...

किस्तों की वो मौत

उफ़ ... कितनी दफा फोन किया...... कुछ फूल भेजे .... कोई कार्ड भेजा.... नाराज़ जो बैठी थीं .... और हर बार तरह, उस बार भी  तुम्हे मानाने की कोशिश में नाकाम हुआ मैं... तुम्हे मानना मेरे बस बात थी ही कहाँ... जितना मनाओ, तुम उतनी नाराज़.... वैसे नाराज़ तो तुम्हे होना भी चाहिए था... सर्दी जो हो गई थी तुमको, दिसम्बर की उस बारिश में भींग.. माना ही कहाँ था मैं.... खिंच लाया था भीगने को .... घर पहुचने से पहले .. हमारे छींकों की आवाज़ घर पहुंची थी.... दाँत किट-किटाते जब तुम्हे घर छोड़ बहार निकला तो लगा अलविदा कहते ही मेरे अन्दर का कोई हिस्सा मर गया हो... बोला तो तुमने फोन पे लिख भेजा... तुम्हारी मौत तो किस्तों में ही लिखी है मिस्टर... हर रोज ऐसे ही मारूंगी  तुम्हे..... कतरा-२, किस्तों में... हंसा था जोर से किस्तों में मिलने वाली  एक हसीन  मौत को सोच , और फिर कितनी बार कितनी किस्तों में मरा.. मुझे याद ही कहाँ... अब भी याद कर के हँसता हूँ... सालों बाद की अपन...