( मेरे प्यारे से दोस्त गोल्ड फिश को समर्पित ) रात - दिन ताना- बाना बुनती रहती है वो फिर उलझाती है खुद को उन्ही तानों में, मथती रहती न जाने क्या हरदम, गुम हो अपने ही ख्यालों में , बल पड़ते हैं सोच-२ उसके पेशानी पर। समझ न पाई है रिश्तों के भ्रम - जाल को खीजती है कभी , रोती है कभी , कभी गुमसुम , तो कभी हँस लेती है, रिश्तों को निभाने में दिखलाई अपनी नादानी पर । ढका है रूह अनगिनत खरोचों से , जो बयाँ करते है हालत उसके जिस्मो - दिल की । ओढ़ के गुस्सा , रस्मों को लपेट बदन से , दिल के चिथडों को सिलती रहती है । दफ़्न करती है हर साँस को सीने में यूँ मानो एहसान कर रही है जी कर किसी पर । मुस्कुराती है , जब पाती है ख़ुद को ख़ुद के क़रीब , अक्सर ख़ुद से बातें करती रहती है । देखती रहती है खिड़की से बाहर बदहवास दौड़ते उस सड़क को , जहाँ कभी रखा था बड़े सुकून से काँधे पर 'उसके ', अपना सर । अब ऑंखें खड़ी - खड़ी जागती रहती हैं , और आस जगते - जगते सोने लगती है । यूँ उठा है अपनो से भरोसा ...
कभी -कभी बाज़ार में यूँ भी हो जाता है, क़ीमत ठीक थी, जेब में इतने दाम न थे... ऐसे ही एक बार मैं तुमको हार आया था.........! .... गुलज़ार