सहजीविता (symbiosis)
उस वक़्त मेरे घर में बस दो ही
प्राणी थे... मैं और मेरे चाचा.... चाचा से मेरी बात बहुत कम ही होती थी, और होती भी तो वह वार्तालाप देश दुनिया, और क्रिकेट के चर्चों तक ही सीमित होती.... पिछले हफ्ते जब आशीष नेहरा ने
वर्ल्ड कप में इंग्लैंड के खिलाफ 6 विकेट लिए थे, तब हम
दोनों ने टीम इंडिया के विश्व कप जीतने की संभावनाओं पर पुरजोर विचार विमर्श
किया.... कुंबले के टीम में होते हुये भी किसी मैच में न खिलाये जाने पर हम दोनों
में गांगुली के प्रति भारी रोष था..... उस दौर में मैं सिग्रेट नहीं पीता था....
मगर सिग्रेट से पहचान बहुत अच्छे से थी..... ऐसे ही किसी वार्तालाप के दौरान चाचा की
सांसें उनके सिग्रेट पीने की चुगली कर जाती... बिल
क्लिंटन दिल्ली आए थे, सन 2000 में,
दिल्ली की चमकाई जा रही सड़कों पर चर्चा के दौरान ही मुझे जब मुझे चाचा के इस आदत
का पता चला था।
कुछ साल बाद मैंने कॉलेज जाना शुरू
कर दिया था, मेरी लंबाई भी कुछ बढ़ गई
थी, अब मैं चाचा के
कपड़ों में फिट होने लगा था... और मेरे कुछ कपड़े चाचा को भी आ ही जाते थे.... सर्दियों में हम अक्सर एक दूसरे के
जैकेट्स अदल बदल के पहन लेते थे। जब कभी सुबह सुबह कॉलेज जाने के लिए जब मैं कोई
ऐसी जैकेट उठता जो पिछले दिन चाचा ने पहनी
हो तो कई बार जैकेट के पॉकेट में कोई सिग्रेट की डिब्बी और लाइटर मिल जाते.....
मैं चुप-चाप उसे उठा किसी और जैकेट के पॉकेट में डाल देता और कॉलेज निकल जाता.....
यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहा, मैंने कभी भी इस बात का ज़िक्र किसी से नहीं किया... चाचा इस
बात को जानते थे कि मैं यह जानता हूँ कि वो सिग्रेट पीते हैं.... मगर मैंने उन्हे
कभी सिग्रेट पीते नहीं देखा... चाची और भाई बहन अब दिल्ली ही आ गए थे.... चाची का तो
पता नहीं पर चाचा के बच्चों को इस बात की भनक भी नहीं थी कि उनके पापा सिग्रेट पीते
हैं...
3rd इयर में था, जब कॉलेज ट्रिप से घर आने में कुछ देरी हो गई थी, और अचानक ही बिन बताए घर आ धमका था मैं....चाची और बच्चे छुट्टियों में कहीं
बाहर गए थे... घर आया तो पाया कि घर धुए
से भरा हुआ है, बालकनी में खड़े चाचा सिग्रेट पी रहे हैं...
मैं उन्हे देखा उन्होने मुझे... कहा किसी ने कुछ भी नहीं... मैंने अपनी नज़रें हटाई
थी बालकनी से, चाचा वहीं खड़े-2 यंत्रवत सिग्रेट पीते रहे... चेहरा शांत
एवं भावहीन था.... उसके बाद मैंने फिर कभी उन्हे सिग्रेट पीते नहीं देखा... हाँ सर्दियों में कभी- कभार मेरे जैकेट्स से सिग्रेट की डिबिया, माचिस या लाइटर निकल जाता और आदतन मैं उन्हे किसी और जैकेट के पॉकेट के सुपुर्द
कर मुतमइन हो जाता....यह क्रम ऐसे ही चलता रहा जब तक दिल्ली पीछे ना छूट गई...
यही कोई 6-7 साल होने को आए, सपनों का दामन थामे मुंबई आ गया... सपनों का पीछा करने के
चक्कर में ना जाने यह सिग्रेट कब मेरी उँगलियों में आ फंसी... वैसे तो मुंबई में
बहुत से लोग मुझे जानते नहीं है... और जो जानते हैं वह यह बात भी जानते हैं कि मैं
सिग्रेट पीता हूँ.... जब घर जाना होता है तब जाने कहाँ से शराफत आ घेरती है मुझे, सिग्रेट खुद-ब-खुद छुट जाती है... पिछले साल ही दिल्ली जाना हुआ था, एक फिल्म के सिलसिले में... जब तक शूट था तब तक घर जाने की फुर्सत नहीं
मिली... सेट पर अधिकतर लोग सीग्रेट पीते थे, मैं भी पीता ...
पैकेट जेब में ही पड़ी रहती... लगातार 36 घंटे के शूटिंग के बाद दिल्ली में शूटिंग
का समापन हुआ.... सुबह अधिकतर लोग मुंबई चले जाने वाले थे..... मैंने दिल्ली में
ही रुकने का फैसला किया था, मुझे 1 हफ्ते बाद मुंबई आना
था... नींद से बोझिल रात के 12 बजे घर पहुचा...
जैकेट को हैंगर के सुपुर्द कर, घोड़े बेच बिस्तर पर जा पड़ा...
जब आँख खुली तो शाम हो आई थी... सिग्रेट
की तलब हुई, घर में पी नहीं सकता था,
तो सोचा थोड़ा बाहर हो आता हूँ... दीवार पर जब नज़र डाली तो मेरा जैकेट वहाँ से नदारद
था... दिल धक से रह गया... कहीं चाचा ने उस जैकेट को तो नहीं पहन लिया? क्या होगा अगर उनके हांथ जैकेट के पॉकेट में पडी सिग्रेट की डिबिया लग गई
तो? क्या कहेंगे वो? न जाने ऐसे कितने
सवाल मन में आ रहे थे..... छोटी बहन से बात हुई तो पता चला कि चाचा ही जैकेट पहन
के गए हैं...... होश उड़ चुका था.... सिग्रेट की तलब मर चुकी थी.... फटा फट ट्रेन
और फ्लाइट की टिकट देखीं.... चाचा के घर आने से पहले मुंबई भाग जाना चाहता था.... मगर नया साल महज कुछ दिन ही दूर था... ट्रेन में
टिकट मिलना संभव नहीं था.... और फ्लाइट टिकट अपनी औकात से बाहर थीं ... बहन ने
बताया कि चाचा के घर आने का वक़्त हो चला है... मैं किसी भी कीमत पर उनका सामना
नहीं करना चाहता था... दरवाज़े के पीछे चाचा का जैकेट लटका पड़ा था...... उसे पहना
और उनके घर आने से पहले ही घर से निकल पड़ा.....
ठंढ कितनी पड़ती है ना दिल्ली
में..... घर से बाहर आते ही ठंढ से बचाने को अपने हाथों को जैकेट के पॉकेट में
डाला.... हाथों का सामना किसी चीज़ से हुआ... देखा तो पाया कि मेरे सिग्रेट का
पाकेट और लाइटर ज़ेब में पड़े हैं...... चाचा सुबह सुबह मेरे सिगरेट को अपने जैकेट
में ड़ाल गए थे.... शर्म से मारा जा रहा था..... ज़मी फट नहीं रही थी कि उसमे समा
जाऊँ....
निरर्थक ही दिल्ली की सड़कों पर
भटकता रहा...... ठंढ बढ़ती रही... जब शरीर ने ठंढ के मुक़ाबले से इनकार कर दिया तो
मैं न चाहते हुये भी घर की तरफ लौट पड़ा... घर पहुँचते ही दीवार पर नज़र पड़ी, मेरी जैकेट वापस दीवार पर लौट आई थी... बहन ने देखते ही
तपाक से पूछा कहाँ चले गए थे भैया? समझ नहीं पा रहा था कि
क्या बोलूँ.... तभी चाचा बोल पड़े... अरे मुंबई में सर्दी नहीं पड़ती है ना... बहुत दिन बाद सर्दी से मुलाकात हुई है, एंजॉय कर रहा होगा.... चलो अपनी मम्मी से बोलो भैया आ गया है... सब
साथ खाएँगे....
चाची खाना लगाने लगी, भाई बहन उनकी मदद कर रहे थे... चाचा टीवी देख रहे थे... मैंने
चोरी-2 चाचा के चेहरे को देखा जो अब भी शांत एवं भावहीन था....
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