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अरण्य मेरी यादों का



अंधेरा बहुत है,
फिर भी जगह जगह दीप जलते हैं,
धुंध भी है, नमी भी है
सब सजोया हुआ है....
पर कोई कमी सी है
भरा हुआ है, भीड़ है,
फिर भी खाली हैं,
सजीव भी हैं, निर्जीव भी,
रंगीन हैं, फिर काली हैं,
हर रोज कुछ जा जुड़ती हैं
दूर जाती हैं फिर मुड़ती हैं,
कुछ गुमसुम, कुछ चित्कारती
कुछ सोई -2 कुछ खोई-2
किसी ने कोई चेहरा उकेरा है,
कुछ अपनी जगह नहीं बना पाईं,
कुछ दबंग हैं, जिन्होनें अपनी कद से से
ज्यादा जगह घेरा है।
कुछ शक्ल, कुछ बेशक्ल
एक तरफ अमावस, दूसरी ओर
पूनम का बसेरा है।
एक महल है, कई कमरे हैं,
कहीं रंगीन शामें बिखरी हैं,
कहीं छुपा कोई धुंधला सवेरा है।
कुछ सुखी, कुछ रूखी
कुछ सुर्ख, कुछ ज़र्द
कुछ रेत की, कुछ पत्थर सी,
कुछ खंडहर, कुछ इमारत,
आड़े-टेढ़े अक्षरों से उकेरी इबारत,
आसमान में ताने कुछ सीना,
झुलसाती धूप में बहाती कुछ पसीना,
कोई हल्की, कोई भारी,
मूर्त-अमूर्त, कुछ हरे, कुछ ठूंठ,
कहीं सच है, कहीं झूठ,
कोई मुसकुराती,
हँसती, रुलाती,
धूप सी, छांव सी,
सर्दियों की अलाव सी,
कहीं बारिश, कहीं निर्जल
कुछ पावन, कुछ निर्मल,
कच्ची-पक्की सड़कें भी हैं,
जिनसे गुजरे हुये लोग अब भी गुजरते हैं,
मिटते हैं , बनते हैं, अब भी सँवरते है,
शीत, बसंत, शरद, हेमंत,
ग्रीष्म और वर्ष, सारी ऋतुएँ एक साथ रहती है,
बसंत के मुसकुराते फूल भी हैं,
वीरान पतझड़ में बिखरी धूल भी है,
बेकल बहाती एक नदी भी है,
गुजरी कोई सदी भी है,
भिंड तो बहुत है,
लेकिन अब भी कमी सी है,
अरनी सा बसता है, दिल के कोने में
मेरीयादों का,
जहां नए पेड़ उगते हैं हर रोज,
यादों का जंगल घाना होता है,
बढ़ता है, हर रोज।





टिप्पणियाँ

Rahul Ranjan Rai ने कहा…
bahut bahut abhar rajneesh ji.
Rahul Ranjan Rai ने कहा…
Shaarda ji blog par aane aur utsahvarhdan ke liye aabhar

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Calendar

  यूं तो साल दर साल, महीने दर महीने इसे पलट दिया जाता है, मगर कभी- वक्त ठहर सा जाता है, मानो calendar Freez कर दिया गया हो. ऐसा ही कुछ हुआ था हम तुम अपने पराए सब के सब रुक गए थे.  देश रुक गया था। कितने दिन से प्लानिग कर रहे थे हम, एक महीने पहले ही ले आया था वो pregnancy kit उसी दिन तो पता चला था कि हम अब मां बाप बनने वाले हैं। मैं तुरन्त घर phone कर बताने वाला था जब बीबी ने यह कह रोक दिया कि एक बार श्योर हो लेते हैं, तब बताना, कहीं false positive हुआ तो मज़ाक बन जाएगे। रुक गया, कौन जानता था कि बस कुछ देर और यह देश भी रुकने वाला है। शाम होते ही मोदी जी की  आवाज़ ने अफरा तफरी मचा दी Lockdown इस शब्द से रूबरू हुआ था , मैं भी और अपना देश भी। कौन जानता था कि आने वाले दिन कितने मुश्किल होने वाले हैं। राशन की दुकान पर सैकड़ो लोग खडे थे। बहुत कुछ लाना था, मगर बस 5 Kg चावल ही हाथ लगा। मायूस सा घर लौटा था।        7 दिन हो गए थे, राशन की दुकान कभी खुलती तो कभी बन्द ।  4-5दिन बितते बीतते दुध मिलाने लगा था। सातवें दिन जब दूसरा test भी Positive आया तो घर में बता दिया था कि अब हम दो से तीन हो रहे हैं

बस यूं ही !

1) कभी यहाँ कभी वहाँ, कभी इधर कभी उधर, हवा के झोंकों के साथ, सूखे पत्ते की मानिंद, काटी थी डोर मेरी साँसों की, अपनी दांतों से, किसी ने एक रोज!   2) सिगरेट जला, अपने होठों से लगाया ही था, कि उस पे रेंगती चींटी से बोशा मिला,ज़ुदा हो ज़मीन पर जा गिरी सिगरेट, कहीं तुम भी उस रोज कोई चींटी तो नहीं ले आए थे अपने अधरों पे, जो..........   3) नमी है हवा में, दीवारों में है सीलन, धूप कमरे तक पहुचती नहीं … कितना भी सुखाओ, खमबख्त फंफूंद लग ही जाती है, यादों में!

अंगूर खट्टे हैं-4

लोमडी की आँखें ... या निहार की आँखें....... ... आँखें जो बिन कहे सब कुछ कह जायें....... आँखे जिसने कभी भी निहारिका से झूठ नही बोला........ निहार की ही हो सकती हैं ये आँखें ........... और इन आंखों ने देखते देखते उसे माज़ी (अतीत) के हवाले कर दिया... याद आ गया वो दिन जब वह निहार से मिली थी....... .उस दिन काल सेंटर जाने का मन बिल्कुल ही नही था। मगर जाना ही पडा... सुबह घर पहुचते ही अनिकेत का कॉल ... लडाई... फिर पुरे दिन सो भी नही सकी ... शाम को ओफ्फिस ॥ वही रोज की कहानी .... सर दर्द से फटा जा रहा था ... काम छोड़ .... बहार निकल गई, कॉरिडोर तो पुरा सिगरेट के धुएं से भरा था .. 'पता नही लोग सिगरेट पिने आते हैं या काम करने ' ........... कैंटीन में जा कर बैठ गई.. अपने और अनिकेत के रिश्ते के बारे में सोचने लगी ... न जाने किस की नज़र लग गई थी....वह ग़लत नही थी.. अनिकेत भी ग़लत नही था अगर उसकी माने तो.. फिर ग़लत कौन था...और ग़लत क्या था.. ..अब उन्हें एक दुसरे की उन्ही आदतों से चिड होने लगी थी जिन पर कभी मर मिटते थे.. आज-कल उसे कोई भी वज़ह नही नज़र नही आ रही थी जिसकी वजह से दोनों साथ रहें .. फिर