कुछ था जो अब नहीं है..
बेतहाशा दौड़ता रहता हूँ
उसकी परछाई पकडे..
वक़्त बदला तो नहीं
पर उसकी चाल नई है ...
एक-२ कर जाने
कितने पैबंद लगाये..
चादरे बदली, कई राज़ छुपाये..
अब भी बोझिल है ज़मीर,
गुनाह जो कई हैं!
कुछ पता हूँ तो टीस सी उठती है अब..
दिन सोने नहीं देता.
रात से नींद रूठी है..
ना मैं गलत हूँ और ना ही तू ..
फिर जाने कौन सही है...
वो तेरे थे उन्हें आना ही था..
लौट आये हैं तेरी कलाइयों में..
तू मुस्कुराती है और मैं तुझसे नज़ारे चुराता हूँ..
दूर भटकता हूँ तुझसे अपने
दिवा स्वप्नों की परछाइयों में...
हंसी रूठी -२ सी है उस रोज से
जब बाज़ार में खुद को बिकाऊ पाया था.
मेरे कुछ सपनों की कीमत पर माँ जब तुने,
अपने कंगन सुनार के पास गिरवी रखवाया था...
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