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Calendar

 यूं तो साल दर साल, महीने दर महीने इसे पलट दिया जाता है, मगर कभी- वक्त ठहर सा जाता है, मानो calendar Freez कर दिया गया हो. ऐसा ही कुछ हुआ था हम तुम अपने पराए सब के सब रुक गए थे.  देश रुक गया था। कितने दिन से प्लानिग कर रहे थे हम, एक महीने पहले ही ले आया था वो pregnancy kit उसी दिन तो पता चला था कि हम अब मां बाप बनने वाले हैं। मैं तुरन्त घर phone कर बताने वाला था जब बीबी ने यह कह रोक दिया कि एक बार श्योर हो लेते हैं, तब बताना, कहीं false positive हुआ तो मज़ाक बन जाएगे। रुक गया, कौन जानता था कि बस कुछ देर और यह देश भी रुकने वाला है। शाम होते ही मोदी जी की  आवाज़ ने अफरा तफरी मचा दी Lockdown इस शब्द से रूबरू हुआ था , मैं भी और अपना देश भी। कौन जानता था कि आने वाले दिन कितने मुश्किल होने वाले हैं। राशन की दुकान पर सैकड़ो लोग खडे थे। बहुत कुछ लाना था, मगर बस 5 Kg चावल ही हाथ लगा। मायूस सा घर लौटा था। 

      7 दिन हो गए थे, राशन की दुकान कभी खुलती तो कभी बन्द ।  4-5दिन बितते बीतते दुध मिलाने लगा था। सातवें दिन जब दूसरा test भी Positive आया तो घर में बता दिया था कि अब हम दो से तीन हो रहे हैं। अब तक सब सामान्य था मगर जब तुम्हारी उल्टियों का दौर चालू हुआ तो यह बात समझ से परे थी कि क्या करना है?  सब लोगों के अलग-2 सलाह उसे यह खिलाओ वह खिलाओ। मगर उन चीजों को ढुन्ढ पाना लगभग असंभव। जैसे ही लाकडाउन लगा पति-पत्नी खिड़की पर बैठ चाय पीते नीचे Society में खलते बच्चों को देखते थे ,मगर धीरे-2 बच्चों की संख्या कम होती गई April के अंत तक बच्चों का खेलना शोर सब बन्द। अब हम पति पत्नी खिड़की पर बैठ उस डरावने Ambulance siren की आवाज़ सुनते, जैसे ही एम्ब्युलेन्स की आवाज़ आती आस-पास की खिड़कियाँ खुल जाती, लोग यह अनुमान लगाने की कोशिश करते कि एम्ब्युलेन्स कौन सी बिल्डिंग में जा रही है।

      मैं जहां रहता हूं, वहां आसपास बहुत सारे कलाकार रहते हैं। मैं सबको तो नहीं जानता। मगर चेहरे पहचाने हुए। अक्सर एक दूसरे को देख कर हम मुस्करा लेते हैं। लॉकडाउन के बाद अधिकतर समय खिड़की के पास खड़े हो बाहर निहारते हुए गुजरता था। ऐसे में अक्सर कोई ना कोई अपनी पहचान वाला चेहरा अपनी खिड़की पर खड़ा मुस्कुराते हुए दिख जाता। वह सारी खिड़कियाँ खुली हुई थी जिस रोज तालियाँ बजी थी अपने देश में। हर खिड़की पर दिये भी जले थे, हर खिड़की खुद को दूसरे खिड़की से बड़ा देश-भक्त साबित करने में लगी थी उस रोज। दिये जलाने में विलंब की वजह से पत्नी की डांट भी मिली थी हमें। मगर जैसे जैसे लॉक-डाउन बढ़ता गया, उन खिदकियों का खुलना कम होने लगा। फिर एक-एक कर पहचान वाली खिड़कियां बंद होती चली गई। ऐसी पहचान वाली खिड़कियां ज्यों ज्यों बंद होती जाती, त्यों-2 अकेलेपन का एहसास और बढ़ जाता।  अक्सर मैं  खुद से पूछता कि आज तक इतने सालों में ना उन्होंने मुझसे कभी बात किया और ना मैंने कभी यह जहमत उठाई कि मैं उनसे उनकी हालचाल ले सकूं। मगर फिर भी उन खिड़कियों के बंद होते ही दिल बुझने सा लगा लगा। ऐसा लग रहा था कि कुछ दोस्त बिछड़ गए हैं।  

अप्रैल के प्रारंभ में ही हमारी बिल्डिंग में कोरोनावायरस संक्रमण आया था, जिसको भी बताया, वह  परेशान हो गया, मगर एक- आध तो ऐसे भी निकले कि उन लोगों ने तो उन दिनों फोन करना भी बंद कर दिया, मानो कोरोना फोन के द्वारा भी फैलता हो।  मुंसिपल कॉरपोरेशन ने तो बिल्डिंग से बाहर निकलने पर प्रतिबंध लगा दिया। बाहर पुलिस वालों का पहरा था और अब कोई भी इंसान उस बिल्डिंग से बाहर नहीं जा सकता था। दो-चार दिन बीते बीते सब्जियों दूध और इन सब चीजों का अभाव होने लगा और लगा और लोग बेकाबू हो रहे थे, समान सबको चाहिए था, पुलिस और सोसाइटी ने लोगों की आवाजाही रोकने के लिए एक नया तरीका ढूंढा निकाला बिल्डिंग का लिफ्ट बंद कर दिया गया।  पहले और दूसरे मंजिल के लोगों को बहुत फर्क नहीं पड़ा। मगर उसके ऊपर रहने वाले हर फ्लोर पर हाहाकार सा  मच  गया था। हर कोई यथासंभव कोशिश कर रहा था कि कैसे भी करके हो जीने के संसाधन जुटा सकें। रोज-रोज सातवीं मंजिल से नीचे जा यह देखना कि क्या आज पुलिस वाले कुछ सामान खरीदने के लिए बाहर जाने देंगे? बर्दाश्त से बाहर हो रहा था। ऐसे में पांडे जी, हमारे सोसाइटी के वॉचमैन  भगवान के रूप में सामने आए थे। पांडे को कुछ पैसे देने पर वह  दूध और हरी सब्जियों का इंतजाम कर देते थे और यह सिलसिला लगभग 15 दिन चला। और हम सब यह दिन गिन रहे थे कि कैसे भी करके कब 21 दिन होंगे और हमारे  सोसाइटी का गेट खुलेगा।  मगर  हमारा यह स्वप्न भी धराशाई हुआ,  जब हमारी सोसाइटी में दो और करोना के केसेस निकले। खैर जैसे-तैसे अगले 21 दिन और गुजारे हमने।

इसी बीच  डॉक्टर ने मेरी पत्नी के अल्ट्रासाउंड के लिए फोर्स करना शुरू कर दिया। उन्होंने मुझे अल्टीमेटम से दे दिया कि चाहे कुछ भी हो प्रेगनेंसी के इस स्टेज में अल्ट्रासाउंड कंपलसरी है। कई महीनों सेमेरी बाइक बंद पड़ी थी। 21 मई तक हमने कैद में कुल 36 दिन गुजार दिए थे, जब बीएमसी के नियमों में बदलाव हुआ और 21 दिन के कोरेंटिन के बाद। हमारी सोसाइटी का दरवाजा खोल दिया गया।  और जब 36 दिनों के बाद में घर से बाहर निकला तो पाया मेरी बाइक अब स्टार्ट नहीं हो रही है। पत्नी को अल्ट्रासाउंड के लिए ले जाना था और ऑटो का कहीं अता पता नहीं था। काफी ढूंढने के बाद भी जब कुछ भी ना मिला तो पत्नी को पैदल ही लेकर अल्ट्रासाउंड के लिए चल पड़े। सुबह 9:00 बजे हम अल्ट्रासाउंड के लिए निकले थे पैदल प्रेगनेंट वाइफ को लेकर। अल्ट्रासाउंड के लिए हॉस्पिटल पहुंचना और अल्ट्रासाउंड करा कर घर वापस आना। इस पूरी प्रक्रिया में ही शाम हो गया। पत्नी की हालत खस्ता थी। खैर  डॉक्टर ने अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट देखी और बोला कि सब कुछ सामान्य है। जान में जान आई।

मार्च से चालू हुआ लॉकडाउन मई तीसरे हफ्ते तक आ पाहुचा था। सोसाइटी का दरवाजा क्या खुला कि एक-एक कर सोसाइटी से लोग गायब होने लगे, पर्मिशन ले-2 कर वह अधिकतर लोग जिनके पास गाड़ी थी वह शहर छोड़ चुके थे। वैसे तो पूरे देश में लोगों का पलायन चालू हो चुका था। फेसबुक से लेकर हर सोशल मीडिया तक। कहीं ना कहीं जो शहर को छोड़कर जा रहे थे। वह अपने गंतव्य तक की यात्रा का फोटो डालते और उन्हे देख देख कर ऐसा लगता है कि कहीं ना कहीं हम पिछड़ रहे हैं। हमको भी अपने घर जाना चाहिए। आए दिन घर से वीडियो कॉल पर देखता घर के बाकी लोग एक जगह जमा है और नित नए-नए पकवान बनाए जा रहे हैं। तभी पता चला कि अब फ्लाइट चालू होने वाले है। बिना सोचे समझे मैंने 3 जून की फ्लाइट बुक कर दी। कैलेंडर पर हमने 3 जून की तारीख को घेर दिया और  एक-एक कर 3 जून का इंतजार करने लगे। मगर  फिल्मों के प्लॉट ट्विस्ट की तरह 3 जून को एक भयानक तूफान मुंबई में आने को बेताब था। और 2 जून को एयरलाइन ने  हम लोग को अपडेट किया कि अब वह फ्लाइट कैंसिल हो गई है आपको किसी और दिन का टिकट बुक करना होगा। फिर जैसे तैसे 9 जून का फ्लाइट टिकट मुंबई से गोरखपुर का बुक किया। ₹14000 हर टिकट का दोनों का टिकट कुल। 28000 इससे पहले वाला टिकिट सिर 12000 का था। अगले 6 दिन इस इंतजार में गुजरे कि कैसे 9 तारीख को हम मुंबई से निकले। डर था मन में अगले 6 दिनों में अंदर सोसाइटी में कोई और कोरोनावायरस का केस निकाल आया तो? क्या होगा? वैसे तो कभी भगवान को याद नहीं किया मगर उन 6 दिनों में मैं और मेरी पत्नी ने उन देवी-देवताओं को भी याद कर डाला। जिनको शायद इंसानियत ने सदियों से भुला रखा था। और आखिरकार  8 जून आया उस दिन। जाकर अपनी बाइक ठीक कराई और बाइक ले जाकर एक दोस्त के घर पर रख दिया। फिर 9 जून की सुबह- सुबह हम। एयरपोर्ट के लिए निकले। और बिना किसी समस्या के हम फ्लाइट में बोर्ड कर गए। कुछ घंटों में हम गोरखपुर में थे। उसके बाद कुछ एक और घंटे और घर घर पर जाकर। घर पर पार्किंग गराज में हमारा मेकशिफ्ट  क्वॉरेंटाइन सेंटर बना था और अगले 14 दिन हमने गराज में गुजारी।

  फिर काम भी चालू हुआ और वर्क फ्रॉम हर धीरे-धीरे हम घर से काम करने लगे और वक़्त गुजराता रहा। बीच में एक दो बार मुंबई आया भी मगर ज्यादा रुका नहीं। एक बार यहां पर आया तो गोवा गया और कुछ दिन गोवा में ही रह काम किया, वापस मुंबई आ अपनी बाइक से ही घर चला गया,  वैसे मुंबई से गोवा आना जाना भी मोटरसाइकल से ही हुआ।  मुंबई से  गोरखपुर तक की मोटरसाइकिल यात्रा का विवरण कभी और।  वक्त गुजरा और पता भी नहीं चला कि लगभग 2 साल कैसे गुजर गया।  मैं पिता बन चुका हूं। और 2 साल बाद पत्नी और अपनी बच्ची को लेकर जब मुंबई आया तो आते ही हम घर की सफाई में लग गए। सफाई के दौरान  मेरी नजर घर के कैलेंडर पर पड़ी जिसकी सुई अभी भी जून 2020 में अटकी हुई थी। 9 जून  की वह तारीख अभी भी वैसे ही थी, गोल मार्क की हुई,  जैसे कल ही की तो बात हो जब मुंबई से हम जैसे-तैसे भाग के निकले थे। वापस आकर फिर से उसी खिड़की पर खड़ा हो। यह ढूंढने की कोशिश कर रहा हूं। उन बंद खिड़कियों में से कितनी खिड़कियां वापस खुल गई हैं? कुछ ही कभी खुली नजर आती है लेकिन खिड़कियां जो उस वक्त बंद हुई थी, अधिकतर अभी भी बंद है। और जो खुल गई हैं उनमें अभी ज़्यादातर चेहरे नए हैं। उनसे अभी ऐसी पहचान नहीं हुई कि वह हमें देख मुस्कुरा दें!


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