सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

दो रुपये की खुशी



बड़-बड़ ...... बड़-बड़ाता है,
आसमां में देख मुसकुराता है,
इशारे करते रहता है,
अक्सर चलते देखा है, चलता ही रहता है,
और चलते-2 खुद से बतियाता है.....
ऐसा ही है वह.....

कोशिश नहीं दिखती
कुछ बन जाने की,
चाह नहीं कुछ पाने की,
फिक्र नहीं है खाने की
सुध नहीं नहाने की
ऐसा ही है वह....

बढ़ी हुयी दाढ़ी
आधी सफ़ेद आधी काली,
बदहाल कमीज़, बिना बटन के,
चिथड़ों सा पैंट,
एक पैर मे काला, एक में सफ़ेद चप्पल
बिलकुल दाढ़ी की तरह दो रंगी...
ऐसा ही है वह.....

बारिश से बचने को, जब छाता ले निकला था मैं,
उस रोज तो पहली बार देखा था उसे...
उसके अपने छाते के साथ....
छाता?? छाते जैसा ही था कुछ,
बस कपड़े की जगह रस्सियाँ लिपटी थी 2-3 तारों पर....
ऐसा ही है वह.....

पागल है पर समझदार है,
जनता है, उसे कब कहाँ होना चाहिए,
सुबह नुक्कड़ की चाय की दुकान पर,
कोई ना कोई चाय बिस्कुट दे ही देता है,
शाम को पिछली गली मे समोसे की दुकान पर,
वह जानता है, उसे खाने को जरूर मिलेगा और मिलता भी है.....
तो दोपहर में सड़क किनारे के उस कूड़ेदान में,
कभी सूअरों संग कुछ चुनता है, तो कभी उनसे खाना छीनता है,
ऐसा ही है वह.................

दाढ़ी में चावल के दानों को देख लगता है
कल रात खाया था कुछ इसने........
देखता है जब कभी मुझे, मुसकुराता है,
जैसे कोई पुरानी जान पहचान है अपनी,
सामने देख उसे मैं भी मुस्कुरा देता हूँ बे-मन,
ऐसा ही है वह.......

मिला था कल शाम, किराने की दुकान पर,
देख मुझे आदतन मुस्कुराया वह, मैं भी....
उसकी घूरती आँखों को खुद से हटाने के लिए
या अपनी पुरानी मुसकुराती पहचान की खातिर,
दो रुपये का एक बिस्किट का पैकेट खरीद, दे दिया उसे....
मुस्कुराया, खुश हुआ, पागलों की तरह,
नहीं-2 अपने आप की तरह, शायद....
ऐसा ही है वह....

खुश तो यूं हुआ वह, मानो खुदा ने जन्नत दे दी हो....
कोई लाटरी निकली हो...  या फिर.....
पता नहीं ... पता नहीं है मुझे..... पर इतना जनता हूँ...
उसे पैकेट से बिस्किट निकालना आता है   
मुसकुराते, बिस्किट खाते, खुद से बतियाते
वह चला गया.... खुशी-2
किसी मासूम की तरह...
ऐसा ही है वह...

वह चला गया, मुझे एक सोच में डूबा छोड़,
अगर मैं बटोर लूँ सारी खुशियाँ एक साथ,
पा लूँ इस दुनिया को कभी,
क्या तब भी मुझे इस की तरह
यह दो रुपये की खुशी नसीब होगी?
होगी क्या कभी?

टिप्पणियाँ

Unknown ने कहा…
बेहतरीन प्रस्तुति |
मेरी नई पोस्ट:-
करुण पुकार
Rahul Ranjan Rai ने कहा…
Alok ji, sada ji aur pradip ji aap sab ka abhar,apki tipnyon ke liye aur is blog par padhar ne ke liye!
Anuradha ने कहा…
aha..this one is pragmatic

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

Calendar

  यूं तो साल दर साल, महीने दर महीने इसे पलट दिया जाता है, मगर कभी- वक्त ठहर सा जाता है, मानो calendar Freez कर दिया गया हो. ऐसा ही कुछ हुआ था हम तुम अपने पराए सब के सब रुक गए थे.  देश रुक गया था। कितने दिन से प्लानिग कर रहे थे हम, एक महीने पहले ही ले आया था वो pregnancy kit उसी दिन तो पता चला था कि हम अब मां बाप बनने वाले हैं। मैं तुरन्त घर phone कर बताने वाला था जब बीबी ने यह कह रोक दिया कि एक बार श्योर हो लेते हैं, तब बताना, कहीं false positive हुआ तो मज़ाक बन जाएगे। रुक गया, कौन जानता था कि बस कुछ देर और यह देश भी रुकने वाला है। शाम होते ही मोदी जी की  आवाज़ ने अफरा तफरी मचा दी Lockdown इस शब्द से रूबरू हुआ था , मैं भी और अपना देश भी। कौन जानता था कि आने वाले दिन कितने मुश्किल होने वाले हैं। राशन की दुकान पर सैकड़ो लोग खडे थे। बहुत कुछ लाना था, मगर बस 5 Kg चावल ही हाथ लगा। मायूस सा घर लौटा था।        7 दिन हो गए थे, राशन की दुकान कभी खुलती तो कभी बन्द ।  4-5दिन बितते बीतते दुध मिलाने लगा था। सातवें दिन जब दूसरा test भी Positive आया तो घर में बता दिया था कि अब हम दो से तीन हो रहे हैं

बस यूं ही !

1) कभी यहाँ कभी वहाँ, कभी इधर कभी उधर, हवा के झोंकों के साथ, सूखे पत्ते की मानिंद, काटी थी डोर मेरी साँसों की, अपनी दांतों से, किसी ने एक रोज!   2) सिगरेट जला, अपने होठों से लगाया ही था, कि उस पे रेंगती चींटी से बोशा मिला,ज़ुदा हो ज़मीन पर जा गिरी सिगरेट, कहीं तुम भी उस रोज कोई चींटी तो नहीं ले आए थे अपने अधरों पे, जो..........   3) नमी है हवा में, दीवारों में है सीलन, धूप कमरे तक पहुचती नहीं … कितना भी सुखाओ, खमबख्त फंफूंद लग ही जाती है, यादों में!

बूढ़ा बस स्टैंड

लड़ाई हुई थी अपनी आँखों की , पहली मुलाक़ात पर , वह बूढ़ा सा बस स्टैंड , मुस्कुराया था देख हमें , जाने कितनी बार मिले थे हम वहाँ , जाने कितने मिले होंगे वहाँ हम जैसे , वह शब्दों की पहली जिरह , या अपने लबों की पहली लड़ाई , सब देखा था उसने , सब सुना था , चुपचाप , खामोशी से , बोला कुछ नहीं। कहा नहीं किसी से , कभी नहीं। कितनी बार तुम्हारे इंतज़ार में , बैठा घंटों , जब तुमने आते-2 देर कर दी। जब कभी नाराज़ हो मुझे छोड़ चली गयी तुम , कई पहर , उंगली थामे उसकी , गोद में बैठा रहा उसके। उसके कंधे पर सर रख के। याद है वहीं कहीं गुमा दिया था तुमने दिल मेरा , हंसा था मेरी बेबसी पर वह , अब वह बूढ़ा स्टैंड वहाँ नहीं रहता , कोई fly over गुजरता है वहाँ से देखा था, जब आया था तुम्हारे शहर पिछली बार। कहीं चला गया होगा वह जगह छोड़ , उस बदलाव के उस दौर में , जब सब बदले थे , मैं , तुम और हमारी दुनियाँ ! अब जो सलामत है वह बस यादें हैं , और कुछ मुट्ठी गुजरा हुआ कल , याद आता है वह दिन, जब तुम्हारा दिल रखने को तुम्हारे नए जूतों की तारीफ की थ