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सितंबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

वक़्त

तुम नहीं थे , मैं खुश रहता था, तुम कहीं नहीं हो सोच दिल बहल जाता था, मैं दुखी  हो जाऊंगा, जब तुम आओगे यह सोच अक्सर दहल जाता था..... ऐसा ही कुछ हुआ भी.... तुम आये  और ....... आखिर क्यों.... तुम्हारे होने का एहसास भर भीतर से गुदगुदा  देता था, दुःख, रंजो-गम, परेशानियों  का वजूद दिल से मिटा देता था... अब तुम्हारे होने का एहसास  तुम्हे खोने के एहसास से दुखदाई क्यों है? तुम नहीं होके भी होते थे... अब तुम  हो के भी नहीं हो, फिर अँधेरे में भी  ये परछाई क्यों है.... अब ऐसा क्या बदल गया, रिश्ते का सूरज साँझ में क्यों ढल गया... तुम वही हो, मै भी वैसा ही हूँ  बस जज्बात पराये हैं,  वक़्त ये कैसी चाल चल गया, दिल बुझ  गया, अब रातें सुनी हैं, फिर तुम्हारे आते ही मैं क्यों जल गया? तुम नहीं होते हो तो  करवटें लेता है वक़्त मेरी ज़िन्दगी में.. तुम आते हो, और तुम्हारे हो कर भी न होने का  सबब पूछते हैं ये गलियां ये मंज़र,  मेरी इस ज़िन्दगी में... मैं चुपचाप भाग लेता हूँ,  खिडकियों को ढांप देता हूँ,  आईने से ऑंखें नहीं मिला पाता हूँ  तुमसे सामना न हो जाये सोच के  यह घबराता हूँ, पता नहीं किस से छिप के भाग

अरमानों की चिता

वहां के लोग त्रिशंकु हैं, या वो जगह ???? नहीं जानता कोई..... हर पल कहीं न कहीं सुलगता रहता है  पल पल जिंदगानियां बदलती हैं, शहर ये हर पल जीता और मरता रहता है . कहते हैं कभी बर्फ में खो जाती थी  चमक सूरज की   धुंध में देवता रमते थे जहाँ  अब धुआं-२ सी आबोहवा है इसकी, भटकते रहते हैं बंदूकधारी दानव यहाँ... सोचता हूँ यूँही  तेरे बारे में ये 'काशीर' तेरी वो थाती ... तेरा गौरव चिनाब और वो झेलम का तीर! देखता हूँ तेरा दामन और रोता हूँ,  इस पर हर जगह दाग सा बना क्यों है ? कभी पाक, कभी नापाक  हर हाँथ तेरा खून से सना क्यों है ? न जाने कितने वादे तुझको भरमाते हैं  ज़न्नत कहते हैं लोग तुझको,सही तो कहते हैं, तू ज़न्नत ही होगा तभी तो  जिंदा लोग तेरे दर से कतराते हैं.... तेरी हवा में खून की बू सी आती है  थुथने भर जाते हैं जान हलक में अटकने लगाती है  और मौत कभी भी छू सी जाती है.. धूं धूं कर जलती है तेरे अरमानो की चिता ज़िन्दगी सहमी-२ सी है और मौत की हर वक़्त शान है हैवानियत हर वक़्त इतराती है  तेरा लिहाफ वर्षों से लहूलुहान है. शायद तू मुर्दों की एक बस्ती है  या कहूं की एक जिंदा शमशान है ...   

उजाले की आस

उस झोपड़ी के आगे  दिया रोज टिमटिमाता है, सूरज के बुझते ही वो बूढ़ा रोज चिराग जलाता है. अँधेरा घना है सूरज रास्ता भटक जायेगा कहता है और मुस्कुराता है. दिया जला हर मौसम में  दिवाकर को अपने घर का पता बताता है. कह कर गयी थी वो उससे की वो चाँद है सूर्य किरणों से ही जलती है रौशनी में ऑंखें चौधियाती हैं  इसलिए छिप कर अँधेरे में निकलती है. तबसे किसी ने उसे थकते नहीं देखा  कहते हैं उसके घर उम्मीदे बरसती हैं. उजाले की आस में जीता है हर रोज अँधेरे की सांसे उसकी देहरी लांघने को तरसती हैं. उजाले का पुजारी जो ठहरा सूरज से लाली चुरा चाँद को चमकता है गुम न हो जाये अँधेरे में सूरज कहीं इसलिए दिया जला भोर तलक सूरज को रास्ता दिखलाता है. तन से बूढ़ा है, पर मन से जवान, रुकन,थकन जैसे अहसासों से बिलकुल अंजान,. तिमिर नहीं आता कभी उस घर के आस-पास लाखो जुगनू बसते हैं उस घर में बस्ती है वही उजाले की आस...... कहते हैं न जहाँ रौशनी होती है वहां कभी अँधेरा नहीं होता.....

कुतरे पंख

पंख पसार कर हौसले का विस्तार  तोड़ कर हर बंधन  छूने चली वो विशाल गगन  परों में समेटे दूरियां, आसमान छू आयी वो, कल्पनाओं से परे, अपने हौसले के संग, कतुहलता से भरे लोग उसे देखने को थे लालाइत  सूरज भी देख उसका दुस्साहस था दंग. आसमां में एक सुराख़ सा दिखने लगा था, विजयी मुस्कान लिए अपने घरौंदे में लौट आई. हर तरफ उसके साहस का चर्चा, उसके  हौसले का दंभ.. किसी पुरुष मन को नहीं भाई..  सुबह लहूलुहान सी घोसले के निचे वो पड़ी थी   कुतर दिए गए थे उसके पर, उसे घेरे भीड़  खड़ी थी, उस दहलीज पर यमराज डोली लिए थे खड़े, मायूस था मंजर, खून से नहाये कुतरे पंख वंही थे पड़े. सांसें रुक गयीं थी, जान जिस्म में थी दफ़न, एक विशाल जन समूह जा रहा था अंतिम यात्रा में  ओढ़ाये एक सम्मान का कफ़न. सूरज ने छिपाया अपना मुंह  घनघोर काली बदरिया घिर आई कल तक साहस जहाँ बिखरा पड़ा था वहां मौत ने मातम की चदरिया फैलाई. अग्नि ने सौहार्द पूर्वक उसे अपनी अंचल में लपेट उसके होने का निशां मिटा दिया. आसमां के उस सुराख़ से खून टपक रहा था इन सब से बेखबर, एक उत्साही कुतरा पंख   फिर से आसमां छूने को बेकरार  अभी भी फुदक रहा था......