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न जाने क्यों?

न जाने क्यों?
एक अजीब सा खेल खेलती हो तुम ज़िन्दगी,
छीन जाती है लबों की मुस्कान यूं ही,
चलते-२ भटक सा जाता हूँ,
जैसे भटका हो एक मुसाफिर धुंध में कहीं.
मंजिल ख्वाब सी नज़र आती है तो
उन्ही ख्वाबों में नज़र आती है मंजिल वही.
न जाने क्यों?
एक अजीब सा खेल खेलती हो तुम ज़िन्दगी,

हर कदम पर रोड़े फैलाती हो तुम
तेरे इन पथरीले रास्तों पर चलता हूँ
ठोकर खाता हूँ, गिरता हूँ संभलता हूँ
हाँथ बढ़ा छू लेना चाहता हूँ, अपनी मंजिल को
घने कोहरे में खो जाती है मंजिल कही.
न जाने क्यों?
एक अजीब सा खेल खेलती हो तुम ज़िन्दगी,

पैरों से रिसते खून से एक निशान सा बनता जाता हूँ,
तुम एक भंवर सी नज़र आती हो
चलते-२ पैर डगमगाते हैं तो बैठ जाता हूँ
एक दिवा स्वप्न की तरह सामने खड़ी मुस्कुराती हो,
मुड-२ के देखता हूँ जब भी,
जहाँ से चला था खुद को अब भी वही पाता हूँ
साहिल के रेत से टकराता हूँ,
छिटकता हूँ और बिखर सा जाता हूँ
न जाने क्यों?
एक अजीब सा खेल खेलती हो तुम ज़िन्दगी,

सारे रिश्ते बेगाने से नज़र आते हैं
पलकों पर ख्वाब टहलते हैं, फिर रूठ जाते हैं
ठूंठ की मानिंद खड़ा हूँ धुप में मैं,
छाया की तलाश में भटकते पथिक, इधर आते कतराते हैं.
तुम्हारी तपिश झुलसाती है मुझको
आँखों को बंद कर सांसों को रोक लेता हूँ, आंसू मुझे भीगाने लगते हैं.
न जाने क्यों?
एक अजीब सा खेल खेलती हो तुम ज़िन्दगी

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Calendar

  यूं तो साल दर साल, महीने दर महीने इसे पलट दिया जाता है, मगर कभी- वक्त ठहर सा जाता है, मानो calendar Freez कर दिया गया हो. ऐसा ही कुछ हुआ था हम तुम अपने पराए सब के सब रुक गए थे.  देश रुक गया था। कितने दिन से प्लानिग कर रहे थे हम, एक महीने पहले ही ले आया था वो pregnancy kit उसी दिन तो पता चला था कि हम अब मां बाप बनने वाले हैं। मैं तुरन्त घर phone कर बताने वाला था जब बीबी ने यह कह रोक दिया कि एक बार श्योर हो लेते हैं, तब बताना, कहीं false positive हुआ तो मज़ाक बन जाएगे। रुक गया, कौन जानता था कि बस कुछ देर और यह देश भी रुकने वाला है। शाम होते ही मोदी जी की  आवाज़ ने अफरा तफरी मचा दी Lockdown इस शब्द से रूबरू हुआ था , मैं भी और अपना देश भी। कौन जानता था कि आने वाले दिन कितने मुश्किल होने वाले हैं। राशन की दुकान पर सैकड़ो लोग खडे थे। बहुत कुछ लाना था, मगर बस 5 Kg चावल ही हाथ लगा। मायूस सा घर लौटा था।        7 दिन हो गए थे, राशन की दुकान कभी खुलती तो कभी बन्द ।  4-5दिन बितते बीतते दुध मिलाने लगा था। सातवें दिन जब दूसरा test भी Positive आया तो घर में बता दिया था कि अब हम दो से तीन हो रहे हैं

बस यूं ही !

1) कभी यहाँ कभी वहाँ, कभी इधर कभी उधर, हवा के झोंकों के साथ, सूखे पत्ते की मानिंद, काटी थी डोर मेरी साँसों की, अपनी दांतों से, किसी ने एक रोज!   2) सिगरेट जला, अपने होठों से लगाया ही था, कि उस पे रेंगती चींटी से बोशा मिला,ज़ुदा हो ज़मीन पर जा गिरी सिगरेट, कहीं तुम भी उस रोज कोई चींटी तो नहीं ले आए थे अपने अधरों पे, जो..........   3) नमी है हवा में, दीवारों में है सीलन, धूप कमरे तक पहुचती नहीं … कितना भी सुखाओ, खमबख्त फंफूंद लग ही जाती है, यादों में!

अंगूर खट्टे हैं-4

लोमडी की आँखें ... या निहार की आँखें....... ... आँखें जो बिन कहे सब कुछ कह जायें....... आँखे जिसने कभी भी निहारिका से झूठ नही बोला........ निहार की ही हो सकती हैं ये आँखें ........... और इन आंखों ने देखते देखते उसे माज़ी (अतीत) के हवाले कर दिया... याद आ गया वो दिन जब वह निहार से मिली थी....... .उस दिन काल सेंटर जाने का मन बिल्कुल ही नही था। मगर जाना ही पडा... सुबह घर पहुचते ही अनिकेत का कॉल ... लडाई... फिर पुरे दिन सो भी नही सकी ... शाम को ओफ्फिस ॥ वही रोज की कहानी .... सर दर्द से फटा जा रहा था ... काम छोड़ .... बहार निकल गई, कॉरिडोर तो पुरा सिगरेट के धुएं से भरा था .. 'पता नही लोग सिगरेट पिने आते हैं या काम करने ' ........... कैंटीन में जा कर बैठ गई.. अपने और अनिकेत के रिश्ते के बारे में सोचने लगी ... न जाने किस की नज़र लग गई थी....वह ग़लत नही थी.. अनिकेत भी ग़लत नही था अगर उसकी माने तो.. फिर ग़लत कौन था...और ग़लत क्या था.. ..अब उन्हें एक दुसरे की उन्ही आदतों से चिड होने लगी थी जिन पर कभी मर मिटते थे.. आज-कल उसे कोई भी वज़ह नही नज़र नही आ रही थी जिसकी वजह से दोनों साथ रहें .. फिर